Saturday, December 24, 2016

देश को 5 लाख करोड़ की सौगात समर्पित करेगी नोटबन्दी

8 नवम्बर की रात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 500 और 1000 रुपये के पुराने नोटों को रद्द कर उनकी जगह नए नोटों के प्रचलन की अपनी घोषणा से पूरे देश को चौंका दिया था। प्रधानमंत्री मोदी ने राष्ट्र को संबोधित करते हुए अपनी सरकार की इस रणनीति के पीछे आतंकवाद को की जाने वाली फंडिंग, जाली करेंसी नोटों का भारत में बढ़ता कारोबार और कालाधन को निकाल बाहर करने के बड़े लक्ष्यों को बताया था । देश की जनता भी इन समस्याओं से पिछले काफी लम्बे समय से चिंतित रही है, वह भी यह चाहती रही है कि इस दिशा में कोई ठोस प्रयास सरकार की ओर से हो, ठीक 6 दिन बाद 30 दिसम्बर को नोटबन्दी की ऐतिहासिक यात्रा अपने पड़ाव पर पहुँचने वाली है. केवल देश ही नहीं अपितु पूरी दुनिया उत्सुकता के साथ नोटबन्दी अभियान की समाप्ति पर उसके परिणामों की प्रतीक्षा कर रही है. नोटबंदी की अबतक की यात्रा ने देश को सुखद और ऐतिहासिक परिणामों के ही संकेत दिए हैं. 
बीती 7 दिसंबर को केंद्र के आर्थिक मामलों के सचिव शक्तिकांत दास जब पत्रकारों को नोटबन्दी अभियान की तब तक की प्रगति से अवगत करा रहे थे तब उन्होंने यह बताया था कि... 8 नवम्बर को नोटबन्दी के बाद से लेकर 5 दिसम्बर तक बैंकों में कुल 11.55 लाख करोड़ रू के 500 व 1000 रू के पुराने नोट लोगों द्वारा बैंक खातों में जमा किये गए हैं. इसी दिन वित्तमंत्रालय का यह आंकलन भी सामने आया था कि उन 11.55 करोड़ रू में से लगभग 7 लाख करोड़ रू ऐसे बैंक खातों में जमा हुए हैं जिनमें 1.5 करोड़ या उससे ज्यादा राशि जमा की गयी है. वित्त सचिव द्वारा दी गयी सूचना तथा वित्तमंत्रालय के उपरोक्त आंकलन से यह स्पष्ट हो गया था कि यदि उन खातों में जमा की गयी राशि को पूरी तरह वैध भी है तो उससे सरकार को न्यूनतम २.५० लाख करोड़ रू आयकर का मिलना सुनिश्चित हो चुका है. यदि 500 और 1000 के पुराने नोटों वाली 15.44 लाख करोड़ की राशि में से शेष सारे 8.44 लाख करोड़ रूपए बैंकों में जमा भी हो गए तो सरकार को उनसे 1.5 से लेकर 2 लाख करोड़ रू तक कर के रूप में प्राप्त होंगे ही होंगे क्योंकि बीती 23 दिसम्बर को वित्तमंत्रालय ने यह सूचना सार्वजनिक की थी कि अबतक जिन खातों में जमा रकम इनकम टैक्स के दायरे में आ चुकी है, वैसे खातों की संख्या लगभग 68 लाख तक पहुँच चुकी है. वित्तमंत्रालय के अबतक के उपरोक्त दो आंकलनों से यह स्पष्ट हो जाता है कि नोटबन्दी के कारण सरकार को इनकम टैक्स के रूप में मिलने वाली रकम का यह आंकड़ा लगभग 4 लाख करोड़ तक पहुँच सकता है. बैंकों में यदि 15.44 लाख करोड़ रू की पूरी राशि जमा भी हो गयी तो यह तो निश्चित है कि वह पूरी राशि वैध नहीं होगी. उसका एक बड़ा हिस्सा वह काला धन भी होगा जिसपर उस राशि के मालिक को भारी जुर्माने की रकम भी चुकानी होगी. अतः संभावित जुर्माने की रकम को भी यदि आयकर से मिलनेवाली राशि से जोड़ दिया जाये तो नोटबन्दी से सरकार को कम से कम 4.5 - 5 लाख करोड़ तक की राशि भी प्राप्त हो सकती है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा उठाया गया नोटबन्दी का कदम इसलिए भी अभूतपूर्व सफलता का इतिहास रचने जा रहा है क्योंकि आर्थिक वित्तीय मामलों की अंतरराष्ट्रीय एजेंसी क्रिसिल ने साल 2007 में भारत की अर्थव्यवस्था में लगभग 23 प्रतिशत काले या अघोषित धन की मौजूदगी बताई थी. यदि इस प्रतिशत को ही स्वीकार कर लिया जाए तो भारत में मौजूदा समय 480 बिलियन डॉलर का अघोषित धन या परिसंपत्ति होने का अनुमान है. सरकार के नोटबंदी के इस कदम से अघोषित नकदी और कालाधन में से लगभग 2 लाख करोड़ रुपये से अधिक राशि सरकारी बैंकों में आ जाने का अनुमान कई अर्थशास्त्रियों ने भी लगाया है. लेकिन अबतक सामने आये वित्तमंत्रालय के उपरोक्त दो आंकलनों ने यह सन्देश दे दिया है कि नोटबन्दी के परिणामस्वरूप देश के खजाने को मिलने जा रही भारी भरकम राशि का आंकड़ा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा कालेधन के खिलाफ छेड़ी गयी निर्णायक जंग (नोटबन्दी) के कदम अभूतपूर्व विजय का नया इतिहास रचने जा रही है.

Friday, December 23, 2016

लोकतंत्र के दो स्तम्भों को RTI से परहेज क्यों.?

चुनावों में कालेधन का जमकर उपयोग होने की चर्चा के साथ ही साथ उन्हीं चुनावों में पेड न्यूज के कालेधंधे की चर्चा भी जमकर होती है. 
सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्टों के जजों के भ्रष्टाचरण के अनेकों प्रकरण पिछले काफी लम्बे समय से लगातार उजागर हो रहे हैं.
अतः लोकतंत्र के दो स्तम्भों न्यायपालिका और प्रेस को  इसके दायरे में आने से परहेज क्यों..?
8 नवम्बर को हुई 1000 और 500 के पुराने नोटों की नोटबन्दी के बाद से न्यूजचैनलों पर यह बहस जोरशोर से प्रारम्भ हो गयी है कि... कालेधन पर अंकुश के लिए राजनीतिक दलों को सूचना का अधिकार कानून (RTI) के दायरे में लाया जाए तथा उनको मिलनेवाले हर छोटी बड़ी राशि के चन्दे के स्त्रोत की पूरी जानकारी सार्वजानिक करने का प्रावधान हो. निकट अतीत में न्यायालयों में भी इस ऐसे प्रश्नों को वरीयता के साथ पूछा गया है. मैं भी इस मांग से, ऐसे प्रश्नों से पूर्णतया सहमत हूँ किन्तु न्यूजचैनलों पर आजकल जोरशोर से की जा रही इस मांग ने एक गम्भीर प्रश्न को भी जन्म दिया है. देश का मीडिया केवल राजनीतिक दलों को ही RTI के दायरे में लाने के लिए ही लगातार शोर क्यों कर रहा हैं.? न्यायालयों में ऐसे प्रश्नों का एकमात्र केंद्र राजनीतिक दल ही क्यों बन रहे हैं.? क्या राजनीतिक दलों के साथ ही साथ प्रेस (मीडिया) तथा देश के न्यायालयों को भी सूचना का अधिकार कानून के दायरे में लाया जाना जरुरी नहीं है.? लोकतंत्र के चार स्तम्भों में से कार्यपालिका और विधायिका तो सूचना का अधिकार कानून के दायरे में पहले से ही हैं. अतः लोकतंत्र के शेष दो स्तम्भों न्यायपालिका और प्रेस को इसके दायरे में आने से परहेज क्यों...?

क्या देश को यह पता चलना आवश्यक नहीं है कि... प्रतिवर्ष सैकड़ों करोड़ के घाटे में चलनेवाले न्यूजचैनल अपने भांति भांति के संपादकों को 15 से 50 लाख रू प्रतिमाह तथा उगाही एजेंट सरीखे रिपोर्टर पत्रकारों को भी 2 से 3 लाख रू प्रतिमाह तक का वेतन कैसे और कहाँ से देते हैं.? इन न्यूजचैनलों पर चलनेवाले विज्ञापनों में से कितने असली हैं और कितने विज्ञापन कालेधन को सफ़ेद बनाने के अपने गोरखधंधे के लिए फ़र्ज़ी तौर पर फिलर की तरह दिखाए जा रहे हैं...? इसकी जांच क्यों नहीं होनी चाहिए.? ऐसे प्रश्नों का उत्तर न्यूजचैनलों को क्या देश को नहीं देना चाहिए.? विशेषकर तब जब कुछ न्यूजचैनलों के सन्दर्भ में पिछले कुछ वर्षों से देश में यह चर्चा जोरशोर से जारी है कि इनके आय के स्त्रोत के तार संदिग्ध विदेशी संपर्कों और अवैध कालेधन से जुड़े हुए हैं. दिल्ली के इनकमटैक्स कमिश्नर के रूप में एसके श्रीवास्तव द्वारा NDTV के खिलाफ 1.76 लाख करोड़ के 2G घोटाले की रकम में से 2000 करोड़ रू की भागीदारी समेत कुल 5500 करोड़ रू की अवैध रकम (कालाधन) हवाला के जरिये सफ़ेद कर के लेने के अत्यंत गम्भीर आरोप ऐसा ही एक शर्मनाक उदाहरण है. इनकमटैक्स कामिश्नर के उपरोक्त आरोपों को इस बात से भी बल मिला है क्योंकि 2G घोटाले की दलाली की मास्टरमाइंड नीरा राडिया के लिए लॉबीइंग करती NDTV की मैनेजिंग एडिटर की टेलीफोन वार्ताओं को पूरा देश सुन चुका है. अतः न्यूजचैनलों की कार्यशैली और कमाई से सम्बन्धित तथ्यों में RTI लागू करके पारदर्शिता क्यों नहीं लायी जानी चाहिए.? 

इसी तरह 10 से 12 रू की लागत वाला अख़बार रोजाना लाखों की संख्या में केवल 3 से 5 रू तक की कीमत (जिसमे से 1 से 2 रू तो हॉकर और एजेंट ही ले लेता है) के दायरे में बेंचने वाले प्रकाशन समूहों को RTI के दायरे में क्यों नहीं आना चाहिए.? विशेषकर तब जबकि देश और प्रदेश में होनेवाले हर चुनावों के दौरान पेड न्यूज से सम्बन्धित सैकड़ों शिकायतें प्रेस काउंसिल ऑफ़ इंडिया तथा चुनाव आयोग में व जनता के बीच जोरशोर गूंजती और दर्ज होने के क्रम और गति पिछले कई वर्षों से लगातार बढ़ती जा रही है. 
ध्यान रहे कि चुनावों में कालेधन का जमकर उपयोग होने की चर्चा के साथ ही साथ उन्हीं चुनावों में पेड न्यूज के कालेधंधे की चर्चा भी जमकर होती है. हर चुनावों में लोकतंत्र की लाज लूटती पेड न्यूजों के तांडव को देखा सुना जाता है. पत्रकारिता की तुलना साबुन तेल मंजन या कंडोम बेंचने वाली किसी कम्पनी के धंधे से नहीं हो सकती. इसे शुद्ध निजी व्यवसाय की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता. पत्रकारिता को लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ की उपाधि से सम्मानित किया गया है. अतः जनता के प्रति जवाबदेही इसका प्रमुख दायित्व है. 
वैसे भी लोकतंत्र के चार स्तम्भों में से कार्यपालिका और विधायिका तो सूचना का अधिकार कानून के दायरे में पहले से ही हैं. अतः लोकतंत्र के शेष दो स्तम्भों न्यायपालिका और प्रेस को इसके दायरे में आने से परहेज क्यों...?
न्यायपालिका का कार्य और दायित्व लोगों को न्याय प्रदान करना है. यह सीधे जनता से जुड़ा हुआ दायित्व है तथा यह कोई ऐसी प्रक्रिया नहीं है जिसमे देश की सुरक्षा या अन्य किसी संवेदनशील विषय से सम्बन्धित गोपनीयता की कोई भूमिका है. अतः न्यायपालिका को भी RTI के दायरे में लाने से आखिर परहेज क्यों.? विशेषकर तब जबकि देश में सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्टों के जजों के भ्रष्टाचरण के अनेकों प्रकरण पिछले काफी लम्बे समय से लगातार उजागर हो रहे हैं. देश की जनता को यह जानने का हक़ क्यों नहीं है कि जिस देश में करोड़ों लोग अपने मुक़दमे की सुनवाई और फैसले के लिए वर्षों से कतार में खड़े हैं उसी देश में एक हत्यारे आतंकवादी की फांसी रोकने की अपील की सुनवाई के लिए देश की सर्वोच्च अदालत पूरी रात कैसे और क्यों खुली रहती है. देश को यह जानने का अधिकार क्यों नहीं है कि जिस सर्वोच्च न्यायलय में अपने केस की सुनवाई प्रारम्भ होने के लिए आम आदमी को महीनों प्रतीक्षा करनी पड़ती है उसी सर्वोच्च न्यायालय द्वारा किसी कपिल सिब्बल द्वारा मोबाइल फोन से की गयी अपील पर किसी तीस्ता सीतलवाड़ की गिरफ़्तारी पर रोक कैसे लग जाती है.? देश को यह जानने का भी अधिकार क्यों नहीं है कि जिस हाईकोर्ट में अपने मामले की सुनवाई प्रारम्भ होने के लिए देश के आम आदमी को हफ्तों और महीनों तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है वही हाईकोर्ट निचली अदालत द्वारा एक फ़िल्मी सितारे सलमान खान को सुनाई गयी सजा के खिलाफ की गयी अपील को निचली अदालत द्वारा दिए गए आदेश के केवल 3 घण्टे बाद ही कैसे सुन लेता है.?

अतः केवल राजनीतिक दलों को RTI कानून के अन्तर्गत लाने के लिए आजकल मीडिया, विशेषकर न्यूजचैनलों में चल रहे अभियान को तबतक केवल एक पाखण्ड और प्रहसन ही क्यों ना माना जाए जबतक इस अभियान में जनता से सीधे जुड़े हुए देश के शेष दो स्तम्भों देश की मीडिया और न्यायिक व्यवस्था को भी RTI कानून के अंतर्गत लाने की मांग को शामिल नहीं किया जाता.

Tuesday, December 20, 2016

देश की आंखों में धूल झोंक रहे हैं राहुल गाँधी.?

क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ राहुल गाँधी के आरोप वाकई सच हैं या फिर राहुल गाँधी पिछले ढाई वर्षों से देश से लगातार झूठ बोल रहे हैं.? 
इस प्रश्न का जवाब जानने के लिए यह जानना आवश्यक है कि देश के सर्वाधिक धनाढ्य परिवारों की सम्पत्ति पिछले 12 वर्षों के दौरान किस सरकार के कार्यकाल में कितनी बढ़ी... ?
18 दिसम्बर को उत्तरप्रदेश के जौनपुर में कांग्रेस की रैली में बोलते हुए राहुल गाँधी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर आरोप लगाया कि केंद्र में अपनी सरकार बनने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश की 60% संपत्ति देश के केवल 1% लोगों को दे दी है तथा इस सम्पत्ति का 60% भाग देश के केवल 50 रईसों को दे दिया है. प्रधानमंत्री नरेंद्र  मोदी के खिलाफ यह आरोप राहुल गाँधी ने पहली बार नहीं लगाया है. 26 मई 2014 को नरेंद्र मोदी द्वारा प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के तत्काल बाद से ही राहुल गाँधी और उनकी कांग्रेसी फौज ने प्रधानमंत्री के खिलाफ अपने ऐसे आरोपों की बौछार प्रारम्भ कर दी थी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर देश के कुछ बड़े औद्योगिक घरानों विशेषकर अम्बानी और अडानी के हित साधने का आरोप कांग्रेस लगातार लगाती रही है...
क्या राहुल गाँधी के उपरोक्त आरोप वाकई सच हैं या फिर राहुल गाँधी पिछले ढाई वर्षों से देश से लगातार झूठ बोल रहे हैं.? इस प्रश्न का जवाब जानने के लिए यह जानना आवश्यक है कि देश के सर्वाधिक धनाढ्य परिवारों की सम्पत्ति पिछले 12 वर्षों के दौरान किस सरकार के कार्यकाल में कितनी बढ़ी... ?
उन 12 वर्षों से सम्बंधित तथ्य कुछ इस प्रकार हैं...
सबसे पहले बात देश की 60 % सम्पत्ति पर देश के 1 % धनाढ्य परिवारों का कब्ज़ा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा करवाये जाने के आरोप की. अपने इस आरोप के पक्ष में राहुल गाँधी ने कोई तथ्य कोई साक्ष्य तो देश के समक्ष आजतक प्रस्तुत नहीं किया है किन्तु 2014 में यूपीए सरकार के 10 वर्षों के शासनकाल के तत्काल बाद प्रकाशित एक रिपोर्ट से देश के समक्ष यह तथ्य अवश्य उजागर हुआ था कि... 2014 तक देश की 50% सम्पत्ति पर देश के 1% धनाढ्य परिवारों का कब्ज़ा हो चुका था. (इस लिंक पर आंकड़े की पुष्टि की जा सकती है http://www.thehindu.com/data/indias-staggering-wealth-gap-in-five-charts/article6672115.ece
नवम्बर 2005 में प्रकाशित एक तुलनात्मक रिपोर्ट में अगस्त 2004 में देश के सबसे धनाढ्य 100 परिवारों की कुल सम्पत्ति का आंकड़ा 43.5 बिलियन डॉलर था जो अगस्त 2005 में बढ़कर 70.13 बिलियन डॉलर हो गया था (इस लिंक पर आंकड़े की पुष्टि की जा सकती है. http://www.business-standard.com/special/bill2005/bill-05_01.pdf ) अर्थात अगस्त 2004 से अगस्त 2005 के मध्य, केवल एक वर्ष में देश के सबसे धनाढ्य 100 परिवारों की कुल सम्पत्ति लगभग 58% की जेट गति से बढ़ी थी और देश के सबसे धनाढ्य 100 परिवारों ने केवल एक वर्ष में ही 26.6 बिलियन डॉलर की मोटी कमाई अपनी संपत्ति में जोड़ ली थी. यहां यह उल्लेख आवश्यक है कि मई 2004 में अटल सरकार की सत्ता से विदाई हो चुकी थी और कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के प्रधानमंत्री के रूप में देश की बागडोर मनमोहन सिंह ने सम्भाल ली थी. अर्थात केवल एक वर्ष में अपनी संपत्ति में 58% वृद्धि कर के 26.6 बिलियन डॉलर की मोटी कमाई करने का कमाल देश के सबसे धनाढ्य 100 परिवारों ने कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के शासनकाल के पहले वर्ष में ही कर दिखाया था.
इसके बाद इन परिवारों की संपत्ति में वृद्धि की यह रफ्तार थमी नहीं थी. सितंबर 2014 में देश के सबसे धनाढ्य 100 परिवारों की संपत्ति का आंकड़ा 346.44 बिलियन डॉलर तक पहुँच गया था ( इस लिंक पर आंकड़े की पुष्टि की जा सकती है. http://www.jagranjosh.com/current-affairs/forbes-india-released-the-100-richest-indian-list-2014-1411727003-1 ). अर्थात अगस्त 2004 से सितंबर 2014 के मध्य देश के सबसे धनाढ्य 100 परिवारों ने लगभग 302.9 बिलियन डॉलर अपनी संपत्ति में जोड़ लिए थे. अर्थात 2004 से 2014 के मध्य की दस वर्षों की समयावधि में देश के सबसे धनाढ्य 100 परिवार प्रतिवर्ष औसतन लगभग 30.29 बिलियन डॉलर अपनी संपत्ति में जोड़ रहे थे. इन परिवारों की संपत्ति में हुई इस बेतहाशा वृद्धि का उपरोक्त आंकड़ा इसलिए और भी ज्यादा आश्चर्यचकित करता है क्योंकि इन दस वर्षों के दौरान भारत पर बाहरी कर्ज के आंकड़े में लगभग 4 गुना वृद्धि हुई थी. वित्तीय वर्ष 2004 की समाप्ति के समय भारत पर 112.7 बिलियन डॉलर का बाह्य ऋण था जो मार्च 2014 में बढ़कर 446.20 बिलियन डॉलर हो चुका था. (इस लिंक पर आंकड़े की पुष्टि की जा सकती है http://www.tradingeconomics.com/india/external-debt ) अर्थात 2004 से 2014 के मध्य यूपीए के शासनकाल की दस वर्षों की समयावधि में देश के क़र्ज़ में औसतन लगभग 33.35 बिलियन डॉलर की वृद्धि हुई थी. क्या राहुल गाँधी मनमोहन सिंह और उनकी कांग्रेसी फौज देश को यह बताएगी कि उनके 10 वर्ष के शासन में जब देश के क़र्ज़ में लगभग 333.5 बिलियन डॉलर की वृद्धि हुई थी तब उसी समयावधि में देश के सबसे धनाढ्य 100 परिवारों की संपत्ति में लगभग 302.9 बिलियन डॉलर की वृद्धि कैसे हो रही थी.? 
पिछले ढाई वर्षों से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ ऐसे आरोप लगा रहे राहुल गाँधी क्या अपनी सरकार के दस वर्षों के शासन से सम्बन्धित उपरोक्त संगीन सवालों का जवाब देश को देंगे.? 
उल्लेखनीय है कि मोदी सरकार के लगभग ढाई वर्ष के शासनकाल के पश्चात् देश के सबसे धनाढ्य 100 परिवारों की संपत्ति का आंकड़ा 381.34 बिलियन डॉलर पर पहुंचा है. यह आंकड़ा 2014 के आंकड़े से 34.9 बिलियन डॉलर अधिक है. अर्थात उन घरानों की संपत्ति में वृद्धि लगभग 13.96 बिलियन डॉलर प्रतिवर्ष की दर से हुई है. जबकि यूपीए के 10 वर्ष लम्बे शासनकाल में यह दर इससे दोगुने से भी अधिक लगभग 30.29 बिलियन डॉलर प्रतिवर्ष थी.

क्योंकि 2004 से 2014 के मध्य, यूपीए के शासनकाल की दस वर्षों की जिस समयावधि में देश के क़र्ज़ में जब औसतन लगभग 33.35 बिलियन डॉलर प्रतिवर्ष की वृद्धि हो रही थी. तब उसी यूपीए के शासनकाल के उन्हीं दस वर्षों की उस समयावधि में देश के सबसे धनाढ्य 100 परिवारों की सम्पत्ति में औसतन लगभग 30.29 बिलियन डॉलर प्रतिवर्ष की वृद्धि हो रही थी. इसलिए आज यह प्रश्न स्वाभाविक है कि... क्या तत्कालीन यूपीए सरकार अपने दस वर्षों के शासनकाल के दौरान देश की 60-70% संपत्ति देश के सबसे धनाढ्य उन 100 परिवारों को दे रही थी.?
राहुल गाँधी को इस सवाल का जवाब देश को देना चाहिए क्योंकि पिछले ढाई वर्षों से वो यही आरोप देश के प्रधानमंत्री के खिलाफ लगा तो रहे हैं किन्तु एक भी ऐसा साक्ष्य या तथ्य प्रस्तुत नहीं कर सके हैं, जिसतरह के उपरोक्त साक्ष्य व तथ्य उनकी कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के दस वर्षों के शासनकाल के दस्तावेजों में दर्ज हैं...


कृपया इसे भी पढ़ें...
36.5 लाख करोड़ की सौगात कारपोरेट जगत को कांग्रेस ने दी तो गुनाहगार नरेन्द्र मोदी क्यों.?
http://jansadan.blogspot.in/2016/11/365_22.html

Thursday, December 1, 2016

अपने पाप का भार कम से कम गरीबों के ही माथे पर तो मत मढ़िए सरकार...

......उनसे उनकी काली कमाई का स्त्रोत पूछे जांचे बिना चोर लुटेरों भ्रष्टाचारियों भूमि-हवाला-ड्रग माफियाओं की काली कमाई में "फिफ्टी-फिफ्टी" बंदरबांट की अपनी स्कीम का जिम्मेदार जिन कारणों को बताया जा रहा है उनमे सबसे बड़ा कारण गरीबों के जनधन खातों को यह कहकर बताया जा रहा है की 8 नवम्बर के बाद उन खातों में 25 से 26 हज़ार करोड़ रूपये जमा हो गए हैं, अर्थात इन खातों के जरिये कालाधन सफ़ेद किया जा रहा है... 
इस सरकारी राग को न्यूजचैनलों ने भी भांडों की तरह चौबीसों घण्टे अलापना शुरू कर दिया था. ऐसा माहौल बना दिया गया था... मानो जनधन खाते वाले गरीब लोग केवल कालाधन को सफ़ेद करने के काम में जुटे हुए हैं.
अब समझिये और साक्षात्कार करिये इस दुष्प्रचार के शर्मनाक सच से.....
स्वयम सरकारी आंकड़ों के अनुसार ही 8 नवम्बर 2016 से पहले लगभग 23℅ जनधन खातों का बैलेंस शून्य था, अर्थात यह खाते निष्क्रिय थे... इसके बाद 23 नवम्बर 2016 को जारी हुए आंकड़ों के अनुसार कुल 25.68 करोड़ जनधन खातों में से 5.89 करोड़ खातों (22.94℅)का बैलेंस शून्य ही था अर्थात यह खाते निष्क्रिय ही थे.
सरकारी दावा यह है की 8 नवम्बर के बाद जनधन खातों में लगभग 26 हज़ार करोड़ रू जमा हो गए. 
साथ ही साथ यह आरोप भी चस्पा कर दिया गया की यह रकम काले को सफ़ेद करने के लिए जमा कराई गयी...
जरा गौर करिये की यदि 19.78 करोड़ सक्रीय प्रत्येक जनधन खातेवालों ने अपने खातों में 8 नवम्बर के बाद यदि 1500 रू भी जमा कराये तो यह रकम लगभग 29.67 हज़ार करोड़ रू होती.
क्या 19.78 सक्रीय जनधन खाते वालों के पास 1000 या 500 के दस पांच नोट भी नहीं रहे होंगे.?
नहीं ऐसा नहीं है. मेरे यहां अखबार देनेवाले हॉकर द्वारा 13.5 हज़ार रू मूल्य वाले 500 के 27 नोट जमा करने की बात मैंने 11 नवम्बर को ही अपनी एक पोस्ट में लिखी थी.
जिससे सिगरेट लेता हूँ उस पानवाले ने भी अपनी बचत के 11 हज़ार रू खाते में जमा कराये. यह लोग जनधन खाता धारक ही हैं.
नोटबन्दी के कारण देश भर में इनके जैसे करोड़ों निम्न मध्यम वर्गीय व गरीब लोगों ने अपने जनधन खातों में पैसे जमा करवाये हैं. किन्तु दुष्प्रचार इस तरह किया गया मानो जनधन खातों में जमा कराई गयी 26 हज़ार करोड़ की रकम वह कालाधन है जो इन गरीबों ने कमीशन खाकर अपने खातों में जमा करवाया है.
दरअसल यह दुष्प्रचार एक सुनियोजित षड्यन्त्र था जिसके बहाने जिसकी आड़ में चोर लुटेरों भ्रष्टाचारियों भूमि-हवाला-ड्रग माफियाओं की काली कमाई में "फिफ्टी-फिफ्टी" बंदरबांट की अपनी स्कीम के पाप को जनधन खाते वाले गरीब आम आदमी के माथे मढ़ना था...
अतः गरीबों के साथ विश्वासघात के अपने पाप का भार कम से कम उन गरीबों के ही माथे पर तो मत मढ़िए सरकार...