Saturday, November 5, 2016

सर्जिकल स्ट्राइक करने वाले कमांडो जवानों के लिए भी सजा ए मौत की मांग कर सकता है मार्कण्डेय काटजू...?

"भोपाल के ईंटखेड़ी में हुई मुठभेड़ पूरी तरह फ़र्ज़ी है तथा इस मुठभेड़ को अंजाम देनेवाले पुलिसकर्मियों को गिरफ्तार कर के उन्हें सज़ा ए मौत दे देनी चाहिए."
4 नवम्बर की शाम एक न्यूजचैनल की बहस में अपना उपरोक्त फतवा जारी करते हुए सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज मार्कण्डेय काटजू यहीं नहीं रुके थे. 
मप्र सरकार द्वारा हाईकोर्ट के जज से मुठभेड़ की न्यायिक जाँच कराने के निर्णय को काटजू ने यह कहते हुए ख़ारिज कर दिया था कि मैं 35 साल तक जज रहा हूँ और मैंने देखा है कि ज्यादातर जज रिटायरमेंट के बाद पद प्राप्ति के लोभ में कानून के बजाय उस समय की सरकारों के अनुसार कार्य करते हैं. काटजू ने इस सन्दर्भ में सुप्रीमकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रह चुके जस्टिस रंगनाथ मिश्र का नाम लेते हुए उनपर तत्कालीन कांग्रेस सरकार के इशारे पर काम करने का आरोप भी लगा डाला था. 
लेकिन यहां पहले बात मार्कण्डेय काटजू के उस फतवे की जिसमे उन्होंने भोपाल में मारे गए 8 आतंकवादियो की मुठभेड़ को फ़र्ज़ी घोषित कर पुलिसकर्मियों को सजा ए मौत देने का फरमान सुना दिया. 

काटजू का कहना है कि जो मारे गए उनको किसी कोर्ट ने दोषी करार नहीं दिया था. काटजू को शायद यह मालूम नहीं है कि ओसामा बिन लादेन के समर्थक भी यही तर्क देते हैं कि उसे किसी कोर्ट ने दोषी करार नहीं दिया था.

लेकिन दुर्दांत आतंकवादियों के सन्दर्भ में काटजू का तर्क अत्यंत खतरनाक है. मार्कण्डेय काटजू के इस तर्क के अनुसार तो 29 सितम्बर की रात अपने प्राणों की बाजी लगाकर पाकिस्तान में घुसकर सर्जिकल स्ट्राइक करनेवाले भारतीय सेना के जांबाज कमांडों को भी पुरस्कार देने के बजाय सजा ए मौत देनी पड़ेगी.? क्योंकि पाकिस्तान में घुसकर उन्होंने जिन आतंकवादियों को मारा था वो तो भारत में आये भी नहीं थे, बल्कि भारत में आने की तैयारी कर रहे थे. अर्थात उन्होंने तो कोई अपराध ही नहीं किया था इसलिए भारत की किसी कोर्ट द्वारा उन्हें दोषी करार दिए जाने का तो कोई प्रश्न ही पैदा नहीं होता. अतः मार्कण्डेय काटजू के तर्क के अनुसार तो भारत की सरकार को उन वीर कमांडो सैनिकों को गिरफ्तार कर उनपर निर्दोषों की हत्या का मुकदमा चलाकर उन्हें सज़ा ए मौत दे देनी चाहिए..?

काटजू के तर्कों से निकलने वाले देशघाती ज़हर का प्रतीक और प्रतिनिधि है उपरोक्त सवाल.? 
यह सवाल साक्ष्य हैं कि अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के बहाने कानून की आड़ की तलवार से राष्ट्रीय एकता अखण्डता और संप्रभुता पर प्रहार की कितनी खतरनाक जमीन तैयार कर रहे हैं काटजू के कुटिल तर्क.

अब बात काटजू के उस आरोप की जिसकी आड़ लेकर उन्होंने मुठभेड़ की न्यायिक जांच के फैसले पर ही कीचड़ उछालने का काम किया है. 
दरअसल काटजू बहुत शातिर दिमाग हैं, इसीलिए उन्होंने ऐसे बहुत से भ्रष्ट जजों को जानने का दावा तो किया लेकिन नाम केवल उन रंगनाथ मिश्र का लिया जिनका देहांत सितम्बर 2012 में हो गया था और जो मार्कण्डेय काटजू के उपरोक्त सनसनीखेज आरोप का जवाब देने के लिए अब इस दुनिया में ही नहीं है. क्योंकि मार्कण्डेय काटजू का तो दावा है कि वो ऐसे बहुत से जजों और उनके कारनामों को जानते हैं, अतः काटजू को देश को कुछ उन जजों का नाम बताने का साहस दिखाना चाहिए जो अभी जीवित हैं और काटजू के आरोपों का जवाब दे सकते हैं. इससे देश का बहुत भला होगा क्योंकि उसके सामने दूध का दूध पानी का पानी हो जायेगा.

हालांकि ऐसे आरोप के बाद मार्कण्डेय काटजू ने स्वयम को ही अपने उपरोक्त गम्भीर आरोप के कठघरे में खड़ा कर दिया है. उपरोक्त आरोप लगाते समय मार्कण्डेय काटजू संभवतः यह भूल गए कि उनके रिटायरमेंट के बाद 2011 में उनको प्रेस काउंसिल ऑफ़ इंडिया के चेयरमैन का अत्यंत सम्मानित ताकतवर पद दिया गया था. यह पद यूं ही नहीं मिल जाता है. इस पद के लिए सामान्यतः सुप्रीमकोर्ट के किसी रिटायर्ड जज का ही चयन किया जाता है. काउंसिल के चेयरमैन का चयन जो तीन सदस्यीय समिति करती है उसके दो सदस्य लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति होते हैं, अर्थात चयन समिति में बहुमत सरकार का ही होता है. सरकार जिसे चाहती है वही चेयरमैन बनता है. 2011 में जब काटजू चेयरमैन बने थे तब लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार थीं और राज्यसभा के सभापति मोहम्मद हामिद अंसारी थे. इन दोनों की राजनीतिक पृष्ठभूमि और कांग्रेस से निकटता का परिचय देना व्यर्थ ही होगा. सारा देश यह सच जानता है. अतः जवाब तो अब मार्कण्डेय काटजू को देना चाहिए कि पूरे देश की मीडिया पर नज़र और नियंत्रण रखनेवाली प्रेस काउंसिल ऑफ़ इंडिया के चेयरमैन सरीखे शक्तिशाली पद के लिए काटजू उस यूपीए-2 सरकार की पहली पसंद कैसे और क्यों बन गए थे जिस यूपीए सरकार पर लगे दसियों लाख करोड़ के घोटालों के संगीन आरोप हैं, जिसके भ्रष्ट कारनामों के उजागर होने का क्रम आज भी थम नहीं रहा है. इन्हीं कारणों से उसको देश की स्वतन्त्रता के बाद के इतिहास की सर्वाधिक भ्रष्ट सरकार कहा जाता है. अतः मार्कण्डेय काटजू को अपनी उसी स्वघोषित ईमानदारी से देश को यह बताना चाहिए कि प्रेस काउंसिल ऑफ़ इंडिया के चेयरमैन का पद पाने के लिए उन्होंने यूपीए-२ की भ्रष्ट सरकार से कौन सा सौदा किया था.? जिस स्वघोषित ईमानदारी से उन्होंने रंगनाथ मिश्र पर पद पाने के लिए तत्कालीन कांग्रेस सरकार से सौदा करने का आरोप जड़ दिया.

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