बहुत कम लोगों को ज्ञात होगा कि सन 1925 में लखनऊ के काकोरी स्टेशन के पास ट्रेन रोककर सरकारी खजाना लूटने के बाद अपने क्रांतिकारी साथियों के साथ लखनऊ पहुंचे थे चन्द्रशेखर आज़ाद। उन्होंने लूटी गयी कुल 7 हज़ार कुछ सौ रुपयों की राशि में से 3 हज़ार रुपये निकालकर अशफ़ाक़उल्लाह खान को यह कहते हुए दिए थे कि यह पैसे विद्यार्थी जी को दे आओ क्योंकि वो हमलोगों की हरसम्भव मदद करते हैं और अखबार भी निकालते हैं।
अशफाकउल्लाह वह पैसे लेकर उसी रात 3 बजे गणेश शंकर विद्यार्थी जी के कानपुर स्थित घर पहुंच गए थे। उन्हें चन्द्रशेखर आज़ाद की पूरी बात बताते हुए 3 हज़ार रूपये देने चाहे थे। विद्यार्थी जी ने दरवाज़े पर खड़े खड़े ही उनकी पूरी बात सुनी थी और कहा था कि इन पैसों की जरूरत तुमलोगों को है, मुझे नहीं। साथ ही उन्होंने अशफ़ाक़उल्लाह खान से यह भी कहा था कि आज़ाद से जाकर कह देना कि "प्रताप" पैसों के दम पर नहीं छपता है।
(नई पीढ़ी को संभवतः ज्ञात ना हो इसलिए जान ले कि विद्यार्थी जी जिस अखबार का प्रकाशन करते थे उसका नाम प्रताप था)
अशफ़ाक़उल्लाह खान उन 3 हज़ार रुपयों के साथ वापस लौट आये थे। आज से 92 वर्ष पूर्व जब सरकारी कर्मचारियों का वेतन 5-6 रू प्रतिमाह होता था, उस समय 3 हज़ार रुपयों के मूल्य का आंकलन करिये।
अतः आज जब NDTV और उस जैसे कई अन्यों की करतूतें देखता सुनता हूं और विद्यार्थी जी सरीखों के ऐसे किस्से याद आते हैं तो सोचता हूं कि क्या थे, क्या हो गए हम.?
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