Friday, January 13, 2017

सेना और सुरक्षाबलों के अधिकारियों को देश के समक्ष खलनायक मत बनाइये.

दुनिया में आजतक ऐसा कोई सरकारी या निजी संस्थान कहीं नहीं बना जिसके सभी कर्मचारी अपने सब अधिकारियों से शत प्रतिशत संतुष्ट और सहमत होते हैं. हर संस्थान हर विभाग में आपको कोई तेजबहादुर कोई यज्ञप्रताप जरूर मिलता है. अतः कठोर सैन्य अनुशासन के दायरे की कठिन सीमाओं में बाँध कर रखने वाले किसी भी सैन्याधिकारी से सब जवान संतुष्ट और सहमत होंगे यह सोचना या ऐसी अपेक्षा करना ही स्वयम को धोखा देना होगा.
बात कई वर्ष पुरानी है. राजधानी लखनऊ के कैंट थाने में उनदिनों तैनात एक इंस्पेक्टर की छवि अत्यंत स्वच्छ और सख्त पुलिस इंस्पेक्टर की थी. वास्तविकता में वो थे भी वैसे ही जैसी कि उनकी छवि थी. एक दिन जाड़े की रात लगभग 9 बजे उनके ही थाना क्षेत्र के मुख्य चौराहे पर शराब के नशे में धुत्त सेना के 4-5 जवानों ने उनको बहुत बुरी तरह पीट कर लहूलुहान कर दिया था उनकी वर्दी फाड़ दी थी, उनको घायलावस्था में अस्पताल ले जाया गया था.अगले दिन यह खबर अख़बारों में प्रमुखता से छपी भी. शाम को राजधानी के तत्कालीन SSP से इस सन्दर्भ में की गयी कार्रवाई के बारे में जानकारी ली गयी तो उन्होंने बताया कि सेना के उच्चाधिकारियों से बात हो रही है दोषी जवानों के विरुद्ध शीघ्र कार्रवाई होगी. ऐसे आश्वासनों के साथ ही जब चार दिन गुजर गए और कोई कार्रवाई नहीं हुयी तथा पत्रकारों के प्रश्न तीखे होने लगे तो SSP महोदय ने जो जवाब दिया था वो मुझे आज भी याद है. उन्होंने कहा था... अरे छोड़ो यार... आप लोग क्यों इस मामले के पीछे पड़े हो. वो लोग सेना के जवान हैं कोई अपराधी नहीं है. नशे में उनसे गलती हो गयी है. उन्होंने इंस्पेक्टर से माफ़ी मांग ली है. उन्होंने भी माफ़ कर दिया है. ये लोग माइनस 30 और 40 डिग्री ठंड में रात रात भर खड़े होकर हमारी आपकी रक्षा के लिए जागते हैं. क्या हम इनकी एक गलती को माफ़ नहीं कर सकते.? अगर हमने कार्रवाई कर दी तो सेना के कानून इतने सख्त हैं कि इनकी नौकरी तो चली ही जाएगी साथ ही साथ सजा भी बहुत सख्त मिलेगी. उन इंस्पेक्टर से जब इस सन्दर्भ में बात की तो उनकी प्रतिक्रिया भी लगभग ऐसी ही थी. लेकिन मुझ सहित कुछ पत्रकार मित्रों को यह तर्क जंचा नहीं था. स्वाभाविक रूप से यह संदेह हुआ था कि संभवतः किसी दबाव में कार्रवाई नहीं हो रही. अतः पता लगाने का प्रयास किया गया किन्तु सेना की अनुशासित गोपनीयता के लौह आवरण के चलते कुछ ज्ञात नहीं हो सका. इस घटना के काफी समय बाद उस घटनाक्रम का एक अंग रहे सेना के ही एक सज्जन से अचानक हुई लम्बी मुलाक़ात में उन्होंने बताया था कि उस घटना में किसी का कोई दबाव नहीं था. राजधानी पुलिस ने सेना के अधिकारियों से उस रात ही शिकायत दर्ज करा दी थी और उन जवानों को CMP ने रात में ही अपनी गिरफ्त में भी ले लिया था. किन्तु दूसरे दिन उन जवानों की बटालियन के कर्नल रैंक के अधिकारी ने इंस्पेक्टर और SSP से भेंट कर यह अनुरोध किया था कि उन जवानों के खिलाफ यदि इन्स्पेक्टर साहब कानूनी कार्रवाई पर अड़ जायेंगे तो उन जवानों की नौकरी तो जाएगी ही और अत्यधिक सम्भावना यह भी है कि नौकरी के बाद मिलने वाली पेंशन समेत सेवानिवृत्ति पश्चात् की कई अनेक सुविधाएँ भी उनको नहीं मिलेंगी, कर्नल ने यह भी बताया था कि वो सभी जवान बहुत कमजोर आर्थिक पृष्ठभूमि के हैं. कर्नल के अनुरोध के बाद इंस्पेक्टर और SSP महोदय ने अपनी शिकायत को हल्की फुलकी धाराओं में बदल दिया था. अतः आधिकारिक तौर पर उन जवानों के खिलाफ हल्की फुलकी विभागीय कार्रवाई ही हुई थी. लेकिन उन सज्जन ने यह भी बताया था कि ऐसे बिगड़ैल जवानों को अनुशासन का पाठ सिखाने समझाने के सेना के अपने अनौपचारिक "तौर-तरीके" भी होते हैं जिनमे सैन्याधिकारी पारंगत होते हैं. अतः उन जवानों को उस रात ही तथा उसके बाद भी कुछ वैसा ही सबक इतना "ठीक" से सिखाया समझाया गया था कि उसके बाद कई दिनों तक उन्होंने शराब चाहे जितनी पी हो लेकिन उनपर नशा सवार नहीं हो पाया होगा. 

लेकिन उन सज्जन के उपरोक्त तर्क से इतर, अपने अनुभव के आधार पर मैं यह कह सकता हूं कि यदि यह तथाकथित "गलती" सेना के जवानों के अलावा किसी और ने की होती तो उसको क्या और कितने गम्भीर परिणाम भोगने पड़ते यह अनुमान लगाना कठिन नहीं है, फिर उनकी सिफारिश चाहे कोई भी करता. 

अपने वषों पुराने इस संस्मरण का जिक्र आज इसलिए कर रहा हूं.

ताकि तीन बातें स्पष्ट कर सकूं...

पहली यह कि देश में सेना के जवानों के प्रति देश में जनभावनाएं कैसी हैं. इसका उदाहरण है उपरोक्त घटना. 

दूसरी यह कि इतने बेलगाम बेकाबू प्रवृत्ति के जवानों को सेना के कठोर अनुशासन में बांध कर रखने का दुरूह कार्य एक सैन्य अधिकारी ही करता है. कर्नल के पद से रिटायर हुए मेरे मित्र के वायोवृद्ध पिताश्री जब कभी मूड में होते थे तब अक्सर अपने ऐसे कुछ संस्मरणों को सुनाते थे जिन्हें सुनकर हंसी भी बहुत आती थी और यह अहसास भी होता था कि इन जवानों को अनुशासन के एकसूत्र में पिरोये रखने की एक सैन्याधिकारी की जिम्मेदारी क्या और कितनी कठिन होती हैं, जिसमें जरा सी चूक बहुत भारी दुर्घटना का कारण बन सकती है.... 

और तीसरी बात यह कि के प्रति भी सेना के उच्चाधिकारी कितने संवेदनशील होते हैं. 

और तीसरी बात यह कि जवानों को कठोर अनुशासन का कठिन सबक सिखाने वाले वही सैन्याधिकारी उन जवानों के दुःख दर्द के प्रति कितने संवेदनशील होते हैं. क्योंकि इंस्पेक्टर महोदय से मारपीट करने वाले उन जवानों की नौकरी जाने से उस कर्नल का रत्ती भर नुकसान भी नहीं होना था जिसने व्यक्तिगत रूप से पुलिस अधिकारियों से मिलकर उन जवानों के लिए अनुरोध किया था.

अतः पिछले ३-४ दिनों में सोशलमीडिया में सुनियोजित तरीके से वाइरल किये गए कुछ वीडियो के बहाने सेना और सुरक्षाबलों के अधिकारियों को देश के समक्ष खलनायक मत बनाइये. 

ऐसा करने से पहले यह ध्यान रखिये कि सैन्याधिकारियों को पूरे देश में खलनायक बनाने, सिद्ध करने का कुकर्म कर रहा तेजबहादुर यादव अपनी करतूतों से 2010 में ही कोर्टमार्शल की कगार पर पहुँच गया था जहां से सैन्याधिकारियों की दयालुता के चलते ही वह मुक्त हो पाया था. और भारतीय सेना के सभी सैन्याधिकारियों को अपने वीडियो से भ्रष्टाचारी राक्षस सिद्ध करने की देशघाती करतूत करनेवाले यज्ञप्रताप यादव के खिलाफ कोर्टमार्शल की कार्रवाई की सिफारिश महीनों पहले ही की जा चुकी है. यह ध्यान रखिये कि कोर्टमार्शल की कार्रवाई की सिफारिश यूं ही नहीं की जाती. और याद यह भी रखिये कि... दुनिया में आजतक ऐसा कोई सरकारी या निजी संस्थान कहीं नहीं बना जिसके सभी कर्मचारी अपने सब अधिकारियों से शत प्रतिशत संतुष्ट और सहमत होते हैं.

हर संस्थान हर विभाग में आपको कोई तेजबहादुर कोई यज्ञप्रताप जरूर मिलता है.

अतः कठोर सैन्य अनुशासन के दायरे की कठिन सीमाओं में बाँध कर रखने वाले किसी भी सैन्याधिकारी से सब जवान संतुष्ट और सहमत होंगे यह सोचना या ऐसी अपेक्षा करना ही स्वयम को धोखा देना होगा. 

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