Tuesday, July 26, 2016

जब आज़ाद की मां की मूर्ति स्थापित न होने देने के लिए कांग्रेस सरकार ने चलवा दी गोलियां

 भारत माता के अजर अमर बलिदानी सपूत चंद्रशेखर आज़ाद और उनकी माता की पुण्य स्मृतियों के साथ तत्कालीन कांग्रेस सरकार द्वारा किये गए खूनी तांडव का शर्मनाक सच यह है.
आप सच से परिचित हों उससे पहले चंद पंक्तियों में उस सच की पृष्ठभूमि से भी परिचित हो लीजिये.
27 फ़रवरी 1931 को चंद्रशेखर आज़ाद की शहादत के कुछ वर्षों बाद उनके पिताजी की भी मृत्यु हो गयी थी. आज़ाद के भाई की मृत्यु भी इससे पहले ही हो चुकी थी.

अमर बलिदानी चंद्रशेखर आज़ाद की माताश्री अत्यंत निर्धनावस्था में हुई उनके पिता की मृत्यु के पश्चात आज़ाद की निर्धन निराश्रित वृद्ध माताश्री उस वृद्धावस्था में भी किसी के आगे हाथ फ़ैलाने के बजाय जंगलों में जाकर लकड़ी और गोबर बीनकर लाती थी तथा कंडे और लकड़ी बेचकर अपना पेट पालती रहीं.
लेकिन वृद्ध होने के कारण इतना काम नहीं कर पाती थीं कि भरपेट भोजन का प्रबंध कर सकें. अतः कभी ज्वार, कभी बाज़रा खरीद कर उसका घोल बनाकर पीती थीं क्योंकि दाल, चावल गेहूं और उसे पकाने का ईंधन खरीदने लायक धन कमाने की शारीरिक सामर्थ्य उनमें शेष ही नहीं रह गयी थी. उनकी यह स्थिति देश को आज़ादी मिलने के 2 वर्ष बाद (सन 1949) तक जारी रही.
(यहां आज की पीढ़ी के लिए उल्लेख कर दूँ कि उस दौर में ज्वार और बाज़रा को ”मोटा अनाज” कहकर बहुत उपेक्षित और हेय दृष्टि से देखा जाता था और इनका मूल्य गेहूं से बहुत कम होता था)


Indian Revolutionaries: A comprehensive study 1757-1961, Volume 3

अगस्त 1947 तक कभी जेल, कभी फरारी में फंसे रहे चंद्रशेखर आज़ाद के क्रान्तिकारी साथी सदाशिव राव मलकापुरकर को जब आज़ाद की माता की इस स्थिति के विषय में पता चला तो वे उनको लेने उनके घर पहुंचे.
उस स्वाभिमानी माँ ने अपनी उस दीन-हीन दशा के बावजूद उनके साथ चलने से इनकार कर दिया था. तब चंद्रशेखर आज़ाद जी को दिए गए अपने एक वचन का वास्ता देकर सदाशिव जी उन्हें अपने साथ अपने घर झाँसी लेकर आये थे. चूंकि उनकी स्वयं की स्थिति अत्यंत जर्जर होने के कारण उनका घर बहुत छोटा था, अतः उन्होंने आज़ाद के ही एक अन्य मित्र भगवान दास माहौर के घर पर आज़ाद की माताश्री के रहने का प्रबंध किया था और उनके अंतिम क्षणों तक उनकी सेवा और सम्मान अपनी माँ के समान करते हुए उनका अंतिम संस्कार स्वयं अपने हाथों से ही किया था.
अपनी भयानक आर्थिक स्थिति के बावजूद सदाशिव जी ने चंद्रशेखर आज़ाद को दिए गए अपने वचन के अनुरूप आज़ाद की माताश्री को अनेक तीर्थस्थानों की तीर्थ यात्रायें अपने साथ ले जाकर करवायी थीं.
अब यहाँ से प्रारम्भ होता है वो खूनी अध्याय, जो कांग्रेस की राजनीति के उस भयावह चेहरे और चरित्र को नंगा करता है जिसके रोम-रोम में चंद्रशेखर आज़ाद सरीखे क्रांतिकारियों के प्रति केवल और केवल जहर ही भरा हुआ था.
मार्च 1951 में चंद्रशेखर आज़ाद की माताश्री के देहांत के पश्चात झाँसी की जनता ने उनकी स्मृति में उनके नाम से एक सार्वजनिक प्याऊ की स्थापना की थी. प्रदेश की तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने प्याऊ के निर्माण को झाँसी की जनता की अवैध और गैरकानूनी गतिविधि घोषित कर दिया. किन्तु झाँसी के राष्ट्रभक्त नागरिकों ने कांग्रेसी सरकार के उस शासनादेश को ‘टॉयलेट पेपर’ से भी कम महत्व देते हुए उस प्याऊ के पास ही चंद्रशेखर आज़ाद की माताश्री की मूर्ति स्थापित करने का फैसला कर लिया.
आज़ाद के ही एक अन्य साथी तथा कुशल शिल्पकार रूद्र नारायण सिंह जी ने आज़ाद की माताश्री के चेहरे की प्रतिमा तैयार कर दी थी. झाँसी के नागरिकों के इन राष्ट्रवादी तेवरों से तिलमिलाई बिलबिलाई कांग्रेस की सरकार अब तक अपने वास्तविक तानाशाह रूप में आ चुकी थी.
कांग्रेस सरकार ने अमर बलिदानी चंद्रशेखर आज़ाद की माताश्री की मूर्ति स्थापना को देश, समाज और झाँसी की कानून व्यवस्था के लिए खतरा घोषित कर उनकी मूर्ति स्थापना के कार्यक्रम को प्रतिबंधित कर के पूरे झाँसी शहर में कर्फ्यू लगा कर चप्पे चप्पे पर पुलिस तैनात कर दी थी ताकि उनकी मूर्ति की स्थापना ना की जा सके..
कांग्रेसी सरकार के इस यमराजी रूप के खिलाफ आज़ाद के अभिन्न मित्र सदाशिव जी ने ही कमान संभाली और चंद्रशेखर आज़ाद की माताश्री की मूर्ति अपने सिर पर रखकर इस ऐलान के साथ कर्फ्यू तोड़कर अपने घर से निकल पड़े थे कि यदि चंद्रशेखर आज़ाद ने मातृभूमि के लिए अपने प्राण बलिदान कर दिए थे तो आज मुझे अवसर मिला है कि उनकी माताश्री के सम्मान के लिए मैं अपने प्राणों का बलिदान कर दूं.
अपने इस ऐलान के साथ आज़ाद की माताश्री की मूर्ति अपने सिर पर रखकर प्याऊ की तरफ चल दिए सदाशिव जी के साथ झाँसी के राष्ट्रभक्त नागरिक भी चलना प्रारम्भ हो गए.
अपने तानाशाह आदेश की झाँसी की सड़कों पर बुरी तरह उड़ती धज्जियों से तिलमिलाई कांग्रेस की तत्कालीन सरकार ने अपनी पुलिस को सदाशिव जी को गोली मार देने का आदेश दे डाला था किन्तु आज़ाद की माताश्री की प्रतिमा को अपने सिर पर रखकर प्याऊ की तरफ बढ़ रहे सदाशिव जी को जनता ने चारों तरफ से अपने घेरे में लेकर आगे बढ़ना शुरू कर दिया था. इस पर सरकार ने उस भीड़ पर भी गोली चलाने का आदेश दे डाला. परिणामस्वरूप झाँसी की उस निहत्थी निरीह राष्ट्रभक्त जनता पर तानाशाह कांग्रेस सरकार की पुलिस की बंदूकों के बारूदी अंगारे मौत बनकर बरसने लगे थे सैकड़ों लोग घायल हुए, दर्जनों लोग जीवन भर के लिए अपंग हुए और तीन लोग मौत के घाट उतर गए.


तत्कालीन कांग्रेसी सरकार के इस खूनी तांडव का परिणाम यह हुआ था कि चंद्रशेखर आज़ाद की माताश्री की मूर्ति स्थापित नहीं हो सकी थी और आते जाते अनजान नागरिकों की प्यास बुझाने के लिए उनकी स्मृति में बने प्याऊ को भी पुलिस ने ध्वस्त कर दिया था.
अमर बलिदानी चंद्रशेखर आज़ाद की माताश्री की 2-3 फुट की मूर्ति के लिए उस देश में 5 फुट जमीन भी देने से कांग्रेस सरकार ने इनकार कर दिया था जिस देश के लिए चंद्रशेखर आज़ाद ने अपने प्राण न्योछावर कर दिए थे.
आज देश की नौजवान पीढ़ी को इस सच से परिचित कराने की ज़रुरत है क्योंकि 69 सालों से कांग्रेस ने बहुत कुटिलता और कपट के साथ अपने ऐसे यमराजी कारनामों को हमसे आपसे छुपाकर रखा है. और 69 सालों से हमें सिर्फ यह समझाने की कोशिश की है कि देश को आज़ादी मोहनदास करमचंद गांधी और जवाहरलाल नेहरू और इनकी कांग्रेस ने ही दिलाई.

संदर्भ : Indian Revolutionaries: A comprehensive study 1757-1961, Volume 3

Monday, July 25, 2016

माया बनाम दया : “सत्ता कप” की तैयारी के लिए हुआ एक प्रैक्टिस मैच...



यूपी के राजनीतिक स्टेडियम की चुनावी पिच पर लगभग 7 महीने बाद होने जा रहे मुख्य मुक़ाबले “सत्ता कप” की तैयारी के लिए हुआ एक प्रैक्टिस मैच मात्र ही है. संयोग से यह मैच रोमांचक उतार चढ़ाव से भरपूर रहा.

मैच की शुरुआत भाजपा के नौसिखिया गेंदबाज दयाशंकर सिंह ने अपनी एक ऐसी लूज़ बॉल के साथ की जिसे कोई भी अनुभवी बल्लेबाज दो कदम आगे बढ़कर अपनी खूबसूरत लॉफ्टेड स्ट्रेट ड्राइव से बाउंड्री के बजाय स्टेडियम के ही बाहर पहुंचा देता लेकिन. दयाशंकर की लूज़ बॉल का सामना खूबसूरत अंदाज़ में सधी हुई लॉफ्टेड स्ट्रेट ड्राइव मारने वाले किसी कलात्मक बल्लेबाज से नहीं हुआ. इसके बजाय उसका सामना गली-मोहल्ला क्रिकेट के सर्वाधिक लोकप्रिय शॉट “कुल्हाड़ा कट” के माहिर “अंधाधुंधी” बल्लेबाज से हुआ.

इसका परिणाम वही हुआ जो अपेक्षित था. नौसिखिया गेंदबाज की लूज़ बॉल पर “अंधाधुंधी” बल्लेबाज ने परम् बौरहे अंदाज़ में अपने “कुल्हाड़ा कट” का भरपूर प्रहार किया, नतीजा यह निकला कि बॉल बहुत ज्यादा ऊंचाई तक तो उछल गयी लेकिन ज्यादा दूरी नहीं तय कर सकी. इसका नतीजा यह हुआ कि बॉल स्टेडियम के बाहर जाने के बजाय मैदान भी पार नहीं कर सकी. दयाशंकर की लूज़ बॉल पर चले जबरदस्त “कुल्हाड़ा कट” के कारण बॉल को बाउंड्री से बाहर जाने से रोकने के लिए ‘फील्डिंग” करने के लिए तैनात की गयी दयाशंकर की पत्नी स्वाति सिंह ने अपनी शानदार फील्डिंग का प्रदर्शन करते हुए “कुल्हाड़ा कट” के कारण बॉल को बाउंड्री से बाहर जाने से ही नहीं रोका, बल्कि गज़ब का फील्डिंग कौशल दिखाते हुए “कुल्हाड़ा कट” शॉट से उछली गेंद को हवा में ही कैच करके “अंधाधुंधी” बल्लेबाज को आऊट करा दिया और दयाशंकर की लूज़ बॉल को विजयी बॉल में परिवर्तित कर दिया…

...तो मित्रों यह एक प्रैक्टिस मैच ही था जिसने पूरे देश को बहुत साफ़ शब्दों में यह सन्देश दे दिया है कि लगभग 7 महीने बाद यूपी के राजनीतिक स्टेडियम की चुनावी पिच पर होने जा रहे “सत्ता कप” के मुकाबले इसीतरह के नौसिखिया गेंदबाजों, अंधाधुंधी बल्लेबाजों की लूज़ बालों और “कुल्हाड़ा कट” शॉट्स के सहारे ही खेले और हारे-जीते जाएंगे जिनमे स्वाति सिंह जैसे खिलाड़ी भी कहीं कहीं विशेष प्रदर्शन करेंगे. लेकिन मित्रों क्योंकि दुर्भाग्य से यूपी के “सत्ता कप” में भाग लेने जा रही सभी टीमों के पास स्वाति सिंह सरीखी विशेष खिलाडियों का भारी अकाल है अतः यह निश्चित मानिये की यूपी के “सत्ता कप” का विजेता नौसिखिया गेंदबाजों, अंधाधुंधी बल्लेबाजों की लूज़ बालों और कुल्हाड़ा कट शॉट्स के धुरंधरों के दम पर ही तय होगा…!!!

यदि उपरोक्त मुकाबले में भाग लेने जा रही टीमों और उनके खिलाडियों से आप “सैद्धान्तिक” तकनीक, “मर्यादित” कौशल, “अनुशासित” प्रतिबद्धता, “वैचारिक” कलात्मकता के प्रदर्शन की अपेक्षा कर रहे हैं तो यकीन मानिये कि आप मूर्खो के स्वर्ग में जी रहे हैं.

Sunday, July 17, 2016

मंदसौर बंद : 13 सालों से सत्ता पर काबिज़ भाजपा सरकार के मुंह पर ज़ोरदार थप्पड़

मंदसौर बंद की घटना हर्ष और गर्व के बजाय शोक और शर्म का विषय है. मंदसौर बंद की घटना मप्र की भाजपा सरकार के मुंह पर जोरदार थप्पड़ सरीखी है.

ईद के मौके पर मध्यप्रदेश का मंदसौर दो दिन पूरी तरह बंद रहा. इस बात पर सोशल मीडिया में बड़ी जोरशोर से ख़ुशी मनायी जा रही है, इसे ऐतिहासिक उपलब्धि के रूप में प्रचारित किया जा रहा है. मंदसौर बंद का कारण यह बताया जा रहा है कि, ‘शब-ए-बारात’ के दिन मुस्लिम गुंडों ने शहर में पूरी रात जमकर हिंसक उपद्रव किया था. हिन्दुओं के सैकड़ों घरों पर खुलकर पथराव किया था, उनके खिड़की दरवाज़े और घरों के बाहर खड़ी गाड़ियां तोड़ी थीं. पुलिस में शिकायत के बाद भी उन मुस्लिम गुंडों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होने के विरोध में मंदसौर की जनता को अंततः यह कदम उठाना पड़ा.

मंदसौर की घटना किसी हर्ष या गर्व की नहीं बल्कि शोक और शर्म का विषय है क्योंकि मंदसौर शहर पकिस्तान, बांग्लादेश में नहीं बल्कि भारत में है.
मंदसौर शहर जम्मू-कश्मीर, केरल या पश्चिम बंगाल में नहीं बल्कि मध्यप्रदेश में हैं.
मध्यप्रदेश में पिछले 13 वर्षों से मुस्लिम लीग, कम्युनिस्ट पार्टी, कांग्रेस, सपा या बसपा की नहीं बल्कि ‘राष्ट्रवादी…!!!’ भाजपा की प्रचण्ड बहुमत वाली सरकार है.
इसके बावजूद मंदसौर में मुस्लिम गुंडे खुलेआम रातभर हिन्दुओं पर कहर बरपाते हैं और पुलिस हिन्दुओं का करूण क्रंदन नहीं सुनती. उन्हें आक्रान्त और आतंकित करने वाले मुस्लिम गुंडों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं करके उनके हौंसले बुलंद करती है.
अतः मंदसौर के हिन्दू मजबूर होकर यह कदम उठाते हैं. मंदसौर की बंद पर सोशल मीडिया में मन रहा जश्न और उत्सव मंदसौर के हिन्दुओं के जख्मों पर नमक की तरह है.

किसी शहर का बंद केवल मौखिक लफ़्फ़ाज़ी का नाम नहीं है.छोटे बड़े हर दुकानदार ने उसके लिए अपनी दो दिन की कमाई की आहुति इसलिए दी क्योंकि बेख़ौफ़ बर्बर मुस्लिम गुंडों से उनकी रक्षा करने के बजाय, उन मुस्लिम गुंडों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं करके, सरकार उन मुस्लिम गुंडों के पक्ष में खड़ी दिखाई दी.
मंदसौर कोई दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, भोपाल, लखनऊ जैसा महानगर नहीं है. उस छोटे से शहर में यदि रोज कमाने खाने वाले दैनिक मजदूर ने यदि दो दिन काम नहीं किया तो उनमें से कई के घरों में चूल्हा भी नहीं जला होगा, बच्चे भूखे सोये होंगे. और यह चूल्हा इसलिए नहीं जला होगा, उसके बच्चे इसलिए भूखे सोये होंगे क्योंकि वह मजदूर हिन्दू है और मुस्लिम गुंडों के आतंक और अत्याचार की आग में झुलस रहा है.
शर्म की बात यह है कि उस हिन्दू दैनिक मजदूर को उस सरकार के शासन में यह सब सहना पड़ रहा है, जिस सरकार का दावा है कि हिन्दुओं की इकलौती ठेकेदार केवल और केवल वही है.
इसीलिए मेरा मानना है कि, मंदसौर की घटना हर्ष और गर्व के बजाय शोक और शर्म का विषय है तथा मप्र की भाजपा सरकार के मुंह पर जोरदार थप्पड़ सरीखी है.

Saturday, June 25, 2016

डॉ स्वामी के सवालों पर हंगामा है क्यों बरपा???

डा. सुब्रमणियम स्वामी द्वारा पहले रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन तत्पश्चात मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविन्द सुब्रमणियम की तीखी आलोचना पर मीडिया के एक वर्ग विशेष तथा विरोधी दलों में हंगामा बरपा है. डा. स्वामी के तेवरों पर वित्तमंत्री अरुण जेटली आगबबूला दिख रहे हैं, डा. स्वामी को अनुशासन के दायरे में रहने की सीख दे रहे हैं. 
रघुराम राजन और अरविन्द स्वामी सुब्रमणियम के विरुद्ध डा. स्वामी के तीखे तेवरों से सजे आरोपों पर हंगामा बरपा कर रहा मीडिया का वर्गविशेष, विरोधी दल तथा स्वयं वित्तमंत्री अरुण जेटली आश्चर्यजनक रूप से डा.स्वामी के आरोपों पर बहस से मुंह चुराते नज़र आ रहे हैं.
रघुराम राजन और अरविन्द सुब्रमणियम के भारत विरोधी कृत्यों और वक्तव्यों के तिथिवार दस्तावेज़ी साक्ष्यों को सार्वजनिक कर डा.स्वामी ने देश की वर्तमान अर्थव्यवस्था के इन दिग्गज अधिकारियों को कठघरे में खड़ा किया है. लेकिन उन साक्ष्यों तथ्यों दस्तावेज़ों पर बहस के बजाय उन पर्दा डालने के लिए डा.स्वामी के सनसनीखेज आरोपों को अनुशासनहीनता बताकर मीडिया और राजनीति के गलियारों में उनके विरुद्ध सुनियोजित हंगामा किया जा रहा है ताकि डा.स्वामी के आरोपों पर से देश का ध्यान भटकाया जा सके.

इस पूरे प्रकरण में डा.स्वामी को अनुशासन में रहने की सीख औेर चेतावनी दे रहे वित्तमंत्री अरुण जेटली को डा.स्वामी को सीख और चेतावनी देने के बजाय देश के सामने यह सफाई देनी चाहिए कि डा.स्वामी जो कह रहे हैं, उनके जो आरोप हैं वो सत्य नहीं है.
क्योंकि देश की अर्थव्यवस्था का कर्त्ताधर्त्ता बनकर बैठे दो दिग्गजों के भारत विरोधी चेहरे और चरित्र में अरुण जेटली को भले ही कुछ भी आपत्तिजनक नहीं लगता हो किन्तु देश के लिए यह एक गम्भीर प्रश्न है जिसका उत्तर वित्तमंत्री अरुण जेटली को देना ही होगा.
डा.स्वामी के सवालों का उत्तर देने के बजाय वित्तमंत्री महोदय रघुराम राजन और अरविन्द स्वामी की तारीफों के पुल बांधते दिखाई दे रहे हैं. डा स्वामी के आरोपों की धार कुंद करने का उनका यह प्रयास अत्यन्त फूहड़ और थोथा है. अर्थव्यवस्था से संबंधित निम्न तथ्य जेटली के ऐसे प्रयासों की धज्जियां उड़ा देते हैं.

वित्त वर्ष 2013-14 में दालों का उत्पादन 19.25 मिलियन टन था.
वित्त वर्ष 2014-15 में दालों का उत्पादन घटकर 17.33 मिbलियन टन हो गया.
वित्त वर्ष 2015-16 में दालों का उत्पादन घटकर लगभग 17 मिलियन टन हो गया.
अर्थात वित्त वर्ष 2013-14 में दालों का जो उत्पादन हुआ था उसकी तुलना में वित्त वर्ष 2014-15 तथा वित्त वर्ष 2015-16 में दालों के उत्पादन में  लगभग 12-13% की कमी हुई. जबकि दालों के दामों में बढ़ोतरी 100% से 300% तक हुई है.
यहां उल्लेखनीय तथ्य यह है कि वर्ष 2014-15 में दालों के आयात पर 15990 करोड़ रू खर्च किये गए थे. यदि आयात बिल की यह राशि 15990 करोड़ से बढ़ाकर 60से 70 हज़ार करोड़ कर दी गयी होती तो गरीब आदमी को 60-65 रू किलो की दाल 150-200 रू किलो में नहीं खरीदनी पड़ती. 
देश का वित्तमंत्री यह राशि आसानी से उपलब्ध करा सकता था. क्योंकि वित्तवर्ष 2013-14 में कच्चे तेल के आयात में भारत को लगभग 168 बिलियन डॉलर खर्चने पड़े थे. कच्चे तेल के दामों में भारी गिरावट के कारण वित्त वर्ष 2014-15 में पेट्रोलियम पदार्थों के आयात पर सरकार ने लगभग 113 बिलियन डॉलर खर्च खर्च किये थे. अर्थात उसे लगभग 55 बिलियन डॉलर यानि लगभग 3 लाख 30 हज़ार करोड़ रू की बचत हुई थी.
अंतर्राष्ट्रीय मूल्यों में लगातार जारी रही भारी कमी के कारण वित्त वर्ष 2015-16 में सरकार को केवल 62 बिलियन डॉलर ही खर्च करने पड़े अर्थात वित्त वर्ष 2013-14(इसके बाद ही देश की अर्थव्यवस्था  की कमान अरुण जेटली ने सम्भाल ली थी.) की तुलना में लगभग 106 बिलियन डॉलर अर्थात लगभग 7 लाख 10 हज़ार करोड़ रू. की बचत हुई. यह आंकड़े बताते हैं कि, दो वर्षों में लगभग 10 लाख 40 हज़ार करोड़ रू की बचत हुई.

इस बचत पर जनता का हक़ था. उसके हिस्से के यह पैसे पेट्रोल डीजल की कीमतों में कमी करके जनता को क्यों नहीं नहीं दिए सरकार ने.? 
ये पैसे किस मद में खर्च किये गए.? 
जनता की जेब/हिस्से के इन पैसों से सस्ती दाल का आयात क्यों नहीं किया गया.? 

ऐसे अनेक सवाल वित्तमंत्री और अरविन्द सुब्रमण्यम सरीखे उनके सलाहकारों की नीति और नीयत को कठघरे में खड़ा करते हैं.
डा.स्वामी के तीखे तेवरों से सजे संगीन आरोप इन्हीं और ऐसे सवालों को स्वर देने का सराहनीय कार्य कर रहे हैं.
उनके सवालों पर हंगामा बरपा करके देश की जनता की आँखों में धूल झोंकी जा रही है.

Monday, June 20, 2016

यदि केजरीवाल का तर्क ही सही है तो...

यदि केजरीवाल का तर्क ही सही है तो उसी तर्क के आधार पर केजरीवाल के खिलाफ हत्या, हत्या का प्रयास, नरसंहार और फिरौती के लिए अपहरण करने के दर्ज़नों केस दर्ज़ कर NIA को केजरीवाल को तत्काल गिरफ्तार करना चाहिए और केजरीवाल के खिलाफ रासुका लगानी चाहिए...
केजरीवाल का कहना है कि, भाजपा सांसद महेश गिरी होटल मालिक रमेश कक्कड़ को लेकर लेफ्टिनेंट गवर्नर नजीब जंग से मिलने गए थे. उसके 6 दिन बाद NDMC की अधिकारी की हत्या हो गयी इसलिए महेश गिरी को भी एम एम खान की हत्या करवाने के आरोप में गिरफ्तार किया जाए.
हालांकि महेश गिरी ऐसे किसी भी आरोप से इनकार कर रहे हैं और इसी आरोप के सबूत की मांग को लेकर केजरीवाल के घर के सामने धरने पर बैठे हुए हैं. केजरीवाल ना तो कोई सबूत दे पा रहे हैं और ना महेश गिरी का सामना कर पा रहे हैं.
केजरीवाल के अनुसार यदि महेश गिरी किसी को लेकर गवर्नर से मिलने जाएं औेर वो आदमी 6दिन बाद हत्या के आरोप में गिरफ्तार हो जाये तो महेश गिरी को भी गिरफ्तार कर के उनपर भी हत्या का केस दर्ज़ होना चाहिए. केजरीवाल को शायद यह याद नहीं हो या फिर राजनीतिक सुविधानुसार भूल जाने का केजरीवाली पाखण्ड हो लेकिन देश नहीं भूला है.
लगभग ढाई साल पहले जिस 5 लाख रूपये के इनामी हत्यारे नक्सल सरगना सव्यसाची पांडा को केजरीवाल ने ओड़िशा में अपनी पार्टी का नेता नियुक्त किया था उस नक्सली सरगना पांडा के खिलाफ दर्ज़ नरसंहार, हत्या, हत्या का प्रयास, अपहरण, फिरौती जैसे संगीन अपराधों की संख्या 100 से अधिक थी.
अतः केजरीवाल के अनुसार यदि किसी के साथ जाकर लेफ्टिनेंट गवर्नर से मिलने मात्र से महेश गिरी उस व्यक्ति द्वारा 6 दिन बाद किये गए अपराध में बराबर के भागीदार हैं, तो फिर नरसंहार, हत्या, हत्या का प्रयास, अपहरण, फिरौती जैसे जघन्य अपराधों से घिरे एक कुख्यात हत्यारे को राजनीतिक शरण सहायता समर्थन देनेवाले केजरीवाल को उस हत्यारे के जघन्य अपराधों में बराबर का भागीदार मानकर केजरीवाल के खिलाफ भी कानूनी कार्रवाई क्यों ना की जाए.?
यहां यह उल्लेखनीय है कि महेश गिरी अपने खिलाफ केजरीवाल के आरोपों को दृढ़ता से नकार रहे है. केजरीवाल से सबूतों की मांग कर रहे हैं औेर केजरीवाल ना सबूत दे पा रहे हैं ना महेश गिरी का सामना कर पा रहे हैं. जबकि केजरीवाल द्वारा सव्यसाची पांडा को राजनीतिक शरण सहायता समर्थन के हज़ारों साक्ष्य सैकड़ों मीडिया रिपोर्टों में दर्ज़ हैं.
इस पूरे प्रकरण में सनसनी खेज शर्मनाक और खतरनाक सच्चाई यह है कि केजरीवाल ने जब इस कुख्यात हत्यारे नक्सली सरगना को ओडिशा में अपनी पार्टी का नेता बनाया था तब वो फरार चल रहा था और उसके ज़िंदा या मुर्दा पकडे जाने पर सरकार ने 5 लाख का इनाम घोषित कर रखा था. मोदी सरकार बनने के बाद जुलाई 2014 में पांडा को गिरफ्तार किया जा सका था.
इसीलिए मेरा मानना है कि...
यदि केजरीवाल का तर्क ही सही है तो उसी तर्क के आधार पर केजरीवाल के खिलाफ हत्या, हत्या का प्रयास, नरसंहार और फिरौती के लिए अपहरण करने के दर्ज़नों केस दर्ज़ कर NIA को केजरीवाल को तत्काल गिरफ्तार करना चाहिए और केजरीवाल के खिलाफ रासुका लगानी चाहिए.

Wednesday, June 15, 2016

उड़ता पंजाब और कुतुबमीनार पर बना प्रेम संगीत...



आज के दौर की चिकनी चमेली, शीला की जवानी, मुन्नी बदनाम और बीड़ी जलइले... की कंगारुओं सरीखी उछलती कूदती 90% नग्न देह वाली नायिकाओं पर हिमालय की तरह भारी पड़ती हैं नूतन की सादगी से सजी शरारती शोख मुस्कुराती निगाहें. जो किसी भी कोण से ना तो कृत्रिम दिखती हैं ना अप्राकृतिक.
दिल्ली की क़ुतुब मीनार के भीतर सीढ़ियाँ बनी हुई हैं जो आपको ऊपर की मंज़िलों तक ले जाती हैं. लेकिन दशकों पहले कुतुबमीनार के भीतर प्रवेश प्रतिबंधित कर दिया गया था. अतः नयी पीढ़ी का सामना उन सीढ़ियों से नहीं हुआ होगा. संयोग से किशोरावस्था में मैंने उन सीढ़ियों को देखा भी है उन पर चढ़ा भी हूँ.
कुतुबमीनार को देखकर यह अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है कि वो सीढियाँ कितने संकरे स्थान में बनी होंगी. उन संकरी सीढ़ियों पर आज से लगभग 54-55 साल पहले एक रोमांटिक फ़िल्मी गीत की शूटिंग हुई थी. 54-55 साल पहले के अत्यन्त सीमित तकनीकी क्षमता वाले भारी भरकम कैमरों और लाइट उपकरणों के सहारे कुतुबमीनार की उन्हीं संकरी अँधेरी सीढ़ियों पर निर्देशक विजय आनंद और कैमरामैन वी रतरा ने जो गीत शूट किया था उसे देव आनंद और नूतन ने अपने अभिनय से यादगार बना दिया था.
संकरी अँधेरी सीढ़ियों पर भारीभरकम कैमरा, लाइट्स और यूनिट के लोगों की भीड़ के बीच बचे सीमित स्थान पर नूतन और देव आनंद ने अपने अभिनय की तूलिका से प्रेम की अभिव्यक्ति का जो इंद्रधनुषी चित्र सिनेमा के परदे पर उकेरा था वो आज भी मंत्रमुग्ध कर देता है. तनमन को मादक मोहक तरंगों से सराबोर कर देता है.
आज के दौर की चिकनी चमेली, शीला की जवानी, मुन्नी बदनाम और बीड़ी जलइले… की कंगारुओं सरीखी उछलती कूदती 90% नग्न देह वाली नायिकाओं पर हिमालय की तरह भारी पड़ती हैं नूतन की सादगी से सजी शरारती शोख मुस्कुराती निगाहें. जो किसी भी कोण से ना तो कृत्रिम दिखती हैं ना अप्राकृतिक

आज इस गीत का उल्लेख इसलिए क्योंकि अभी अभी खबर देखी कि सुप्रीमकोर्ट ने “उड़ता पंजाब” के निर्माता निर्देशकों से जब पूछा कि उनकी फिल्म में इतनी भद्दी भद्दी अश्लील गालियां क्यों हैं तो उन्होंने जवाब दिया कि, दरअसल वो वास्तविकता “रियल्टी” दर्शाना चाहते है. इसलिए….मित्रों मेरा मानना है कि, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता या वास्तविकता किसी नंगई, गाली गलौज की मोहताज़ नहीं होती. बहुत सीमित साधनों और विषम परिस्थितयों में भी अपनी बात सर्वश्रेष्ठ शैली में कही जा सकती है. बस शर्त यह है कि बात कहने वाले विजय आनंद,वी रतरा, नूतन और देव आनंद सरीखे “जीनियस” होने चाहिए, ना कि अनुराग कश्यप, एकता कपूर, आलिया भट्ट शहीद कपूर सरीखे छिछली, थोथी सोच और क्षमता वाले सतही सस्ते लोग. जीनियस विजय आनंद की निर्देशन क्षमता और नूतन, देव आनंद के बेमिसाल अभिनय कौशल से सजे उपरोक्त गीत का आनंद आप भी लीजिए फिर तय करिये कि, क्या सही है, क्या गलत.

https://youtu.be/0eHgCT_IwTg





Tuesday, June 7, 2016

पर उपदेश कुशल बहुतेरे : त्वरित कार्रवाई वाले न्यायिक हस्तक्षेप का कोई प्रसंग तो याद दिलाइये.



सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश महोदय ने मीडिया में प्रवचन दिया कि जब सरकार ठीक से काम नहीं करती है तब न्यायालय को हस्तक्षेप करना ही पड़ता है. आगे भी करता रहेगा.
जब उनका यह प्रवचन न्यूजचैनलों पर दिखाया जा रहा था संयोग से उसी समय कुछ न्यूजचैनलों पर यासीन मालिक का किस्सा भी सुनाया बताया जा रहा था कि उसने किस तरह 1987 में पुलिस कर्मियों समेत 4 की हत्या करने के बाद 1990 में लगभग 2 दर्जन कश्मीरी पंडितों की हत्या की थी. उसको सजा तो छोड़िए, उन हत्याओं के लिए उसके खिलाफ मुकदमा चलना भी अभी शुरू नहीं हुआ है. अभी यह भी तय नहीं है कि मुकदमा चलेगा भी कि नहीं.?
न्यायाधीश महोदय के न्यूजचैनली प्रवचन के समय ही एक न्यूजचैनल साध्वी प्रज्ञा की व्यथा भी सुना बता रहा था कि किस तरह बिना किसी साक्ष्य के 2008 से लेकर अबतक, लगभग 8 सालों तक साध्वी को जेल में बंदकर मरण तुल्य यातनाएं दी जाती रहीं. लेकिन इसके लिए किसी को कोई सज़ा नहीं.
सिर्फ इतना ही नहीं....
उनकी बात सुनकर मुझे याद आया कि, 1984 के दंगो में दिल्ली में 3 हज़ार सिखों के नरसंहार के लिए आज 32 बरस बाद भी किसी को सज़ा नहीं हुई है. 1984 में एक रात Bhopal में ही 3900 लोगों को मौत के घाट उतारने और लाखों लोगों को अपंग करने के लिए आजतक किसी को कोई सज़ा नहीं हुई है.
15 वर्षों के कांग्रेसी शासन में सिंचाई विभाग की भ्रष्टतम कार्यशैली का शिकार बनकर महाराष्ट्र में 50000 से अधिक किसानों ने आत्महत्या कर ली थी. आजतक सिंचाई विभाग के किसी इंजीनियर अफसर को कोई सज़ा नहीं हुई. आखिर क्यों.?
उनकी बात सुनने के बाद मुझे यह भी याद आया कि देश भर के न्यायालयों में लगभग 2.70 करोड़ मुक़दमे लम्बित पड़े हैं. लेकिन मुझे यह याद नहीं आया कि, इस लिस्ट को खत्म करने के लिए किसने क्या हस्तक्षेप कब किया...??? उपरोक्त सभी मामलों में सज़ा देने, न्याय करने का दायित्व क्या रेलमंत्रालय या खेल मंत्रालय या तेल मंत्रालय का था...???
......या फिर इस देश की न्यायिक व्यवस्था का...???
उपरोक्त सभी मामलों में समयबद्ध त्वरित कार्रवाई के आदेश वाले न्यायिक हस्तक्षेप का कोई प्रसंग मुझको तो याद नहीं. मित्रों में से किसी को याद हो तो मुझे बताइयेगा.
फिलहाल तो मुझे वही कहावत याद आ रही है कि.....

"पर उपदेश कुशल बहुतेरे..."