Tuesday, January 9, 2018

कवि और तुकबंदियों के गवइय्ये में बहुत फर्क होता है

स्वतंत्रता पूर्व गांधी ने महाकवि महाप्राण सूर्यकांत त्रिपाठी निराला से भेंट के लिए उन्हें वर्धा स्थित अपने आश्रम में आमंत्रित किया था। निर्धारित तिथि व समय पर महाप्राण निराला वर्धा पहुंच गए थे। गांधी उस समय अपने कक्ष में नहीं थे। थोड़ी देर प्रतीक्षा के पश्चात निराला वहां से उठकर चल दिए थे। कक्ष से बाहर निकलकर निराला आश्रम के द्वार की तरफ बढ़े ही थे तब ही पीछे से तेजी से चलकर आये गांधी ने उन्हें रोका और कहा कि रुको निराला मैं आ गया हूं। गांधी की इसबात पर ठहर गए निराला ने पलटकर गांधी को जवाब दिया था कि... "यदि तुमको यह अभिमान है कि तुम युग प्रवर्तक नेता हो तो मुझे भी यह अभिमान है कि मैं युग प्रवर्तक कवि हूं। तुमने मुझे जिस समय पर बुलाया था उस समय पर मैं आया, लेकिन तुम नहीं मिले। अब अगर निराला से मिलना हो तो दारागंज इलाहाबाद आना।" इतना कहकर निराला वहां से चले आये थे। लेकिन यहां प्रशंसा गांधी की भी करनी होगी कि गांधी ने अपनी गलती को स्वीकारा था और अपनी एक इलाहाबाद यात्रा के दौरान इलाहाबाद के दारागंज स्थित निराला के निवास पर जाकर उनसे भेंट की थी।
हालांकि गांधी के नेहरू सरीखे चेलों ने निराला को उनके इन तेवरों के लिए दण्डित करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी थी। स्वतंत्रता के 14 वर्ष पश्चात 1961 में महाकवि निराला का देहांत हुआ था। उन 14 वर्षों के दौरान हिन्दी के अनेकानेक कवियों साहित्यकारों पर सरकारी सहायता सम्मानों और पदों की बरसात की गयी। किन्तु निराला को कभी कोई सम्मान या सहायता नहीं दी गयी। निराला ने गम्भीर आर्थिक स्थिति में ही इस दुनिया को अलविदा कहा था। लेकिन उन 14 वर्षों के दौरान भी निराला के तेवरों में किंचित मात्र भी परिवर्तन नहीं हुआ था। उनके स्वाभिमानी तेवर अंतिम क्षणों तक ज्यों के त्यों रहे थे।
आजकल कुमार विश्वास जिन रामधारी सिंह "दिनकर" का जिक्र अपने हर बयान, हर साक्षात्कार में कर के अपनी तुलना उनसे करने की शातिर कोशिश कर रहा है उन रामधारी सिंह दिनकर के कृतित्व के पैरों की धूल भी नहीं हैं कुमार विश्वास की सस्ती सतही रोमांटिक तुकबन्दियां। लेकिन उन रामधारी सिंह दिनकर को दी गयी राज्यसभा की कुर्सी और अन्य सरकारी सम्मानों व पदों पर तीखा प्रहार दिनकर जी के समकालीन उनके करीबी कवि मित्र गोपाल सिंह नेपाली ने तब किया था जब नेपाली जी के विद्रोही तेवरों को थोड़ा शांत करने की सलाह दिनकर जी ने उनको दी थी।
उस सलाह का जवाब नेपाली जी ने बाकायदा उस कवि सम्मेलन के मंच से सार्वजनिक रूप से दिया था जिस कवि सम्मेलन में दिनकर जी स्वयं उपस्थित थे। तब गोपाल सिंह नेपाली जी ने उनको संबोधित करते हुए अपनी यह प्रसिद्ध कविता पढ़ी थी...

तुझसा लहरों में बह लेता
तो मैं भी सत्ता गह लेता।
ईमान बेचता फिरता तो,
मैं भी महलों में रह लेता।

राजा बैठे सिंहासन पर,
यह ताजों पर आसीन कलम
मेरा धन है स्वाधीन कलम

जिसने तलवार शिवा को दी
रोशनी उधार दिवा को दी
पतवार थमा दी लहरों को
खंजर की धार हवा को दी
अग-जग के उसी विधाता ने,
कर दी मेरे आधीन कलम
मेरा धन है स्वाधीन कलम
(पूरी कविता कमेंट में देखिए)

क्योंकि राज्यसभा की सीट ना मिलने पर तड़प रहे, छटपटा रहे जनलोकपाली गवइय्ये कुमार विश्वास को पिछले 4-5 दिनों से अपने कवि होने का ढोल पीटते हुए देखा। खुद को दिनकर से जोड़ने की शातिर कोशिशें करता हुआ देखा तो सोचा कि... एक गवइय्ये और कवि का फर्क लिख ही डालूं।
07/01/2012

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