Thursday, August 23, 2018

1762 महिलाओं की जब मॉब लिंचिंग हुई... तब खामोश क्यों थे कांग्रेसी वामपंथी सपाई बसपाई.?


साढ़े 4 वर्ष पूर्व, अर्थात देश में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के सत्तारूढ होने से पहले के 10 वर्षों के दौरान देश में भीड़ द्वारा की गई हत्याओं (मॉब लिंचिंग) के आपराधिक इतिहास पर संक्षिप्त दृष्टिपात मात्र से कांग्रेस और वामपंथियों सरीखे उसके कुछ सहयोगी दलों के साथ ही साथ मीडिया के एक वर्ग विशेष ( विशेषकर न्यूजचैनलों) द्वारा मॉब लिंचिंग के नाम पर किया जा रहा देशव्यापी हंगामा, हाहाकार शत प्रतिशत संदेहास्पद और षड्यंत्रकारी प्रतीत होता है।
2015 में राष्ट्रीय क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो द्वारा जारी किए गए एक आंकड़ें के अनुसार वर्ष 2005 से वर्ष 2014 तक की 10 वर्ष की समयावधि में देश में 1762 ऐसे बर्बर हत्याकांड हुए थे जिनमें किसी महिला को भीड़ ने टोना, टोटका, काला जादू, करने वाली चुड़ैल घोषित कर के मौत के घाट उतार दिया गया था।
यह आंकड़ा बताता है कि उन 10 वर्षों के दौरान अंधविश्वासी भीड़ प्रतिवर्ष औसतन 176 महिलाओं को मौत के घाट उतार रही थी।
उल्लेखनीय है कि इन 10 वर्षों की समयावधि में से साढ़े 9 वर्षों तक केन्द्र में कांग्रेसी गठबन्धन वाले यूपीए की मनमोहन सरकार का शासन था। 
2005 से 2008 तक की 4 वर्ष की समयावधि में वामपंथी खेमा भी उस यूपीए गठबन्धन का प्रमुख सदस्य था। उस दौरान ऐसे बर्बर हत्याकांडों के प्रति कांग्रेस कितनी संवेदनशील और सजग थी यह इस एक उदाहरण से भी समझा जा सकता है कि वर्ष 2013 में देश में 160 ऐसे बर्बर हत्याकाण्ड हुए थे। इनमें से 54 हत्याएं केवल झारखण्ड राज्य में हुईं थीं। उल्लेखनीय है कि 2013 में झारखण्ड में कांग्रेस और झारखण्ड मुक्ति मोर्चा की गठबन्धन सरकार का शासन था। केन्द्र में मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाले कांग्रेसी यूपीए की सरकार का शासन था।
वर्ष 2013 से संबंधित उपरोक्त आंकड़ें अपवाद मात्र नहीं हैं। 2005 से 2014 तक देश में किसी महिला को चुड़ैल घोषित कर के उसकी बर्बर हत्या करने की सर्वाधिक (372) घटनाएं झारखण्ड में ही हुईं। ऐसी घटनाओं के मामलों में 37 हत्याएं प्रतिवर्ष के औसत के साथ लगातार 10 वर्षों तक झारखण्ड देश में पहले नम्बर पर रहा। उल्लेखनीय यह भी है कि इन 10 वर्षों के दौरान केन्द्र में लगातार कांग्रेस की ही सरकार थी तथा झारखण्ड में भी इस दौरान लगभग साढ़े 6 वर्षों तक कांग्रेसी गठबन्धन की ही सरकार थी।
यहां उल्लेख आवश्यक है कि उन 10 वर्षों के दौरान जिन 1762 महिलाओं को चुड़ैल घोषित कर के उनकी निर्मम बर्बर हत्या कर दी गयी थी उनमें से एकाध अपवाद को छोड़कर शत प्रतिशत महिलाएं या तो पिछड़ी आदिवासी जनजाति समुदाय की थीं या फिर दलित समुदाय की।
अतः आज जब कांग्रेस और उसके गठबन्धन सहयोगियों की फौज तथा मीडिया का एक वर्ग विशेष यह आरोप लगा रहा है कि पिछले साढ़े 4 वर्षों के दौरान गौरक्षा के नाम पर भीड़ द्वारा की गयी 30 तथाकथित गौतस्करों/गौकशों की हत्याओं में जो लोग मारे गए उनमें से लगभग 87% लोग मुसलमान थे। इसलिए यह हत्याएं कोई सामान्य आपराधिक घटनाएं नहीं हैं। अतः इस फौज को अब इस सवाल का भी जवाब देना चाहिए कि उन 1762 आदिवासी जनजाति व दलित समुदाय की महिलाओं की हत्याएं क्या सामान्य आपराधिक घटनाएं थीं.? अगर नहीं थीं तो अंधविश्वासी भीड़ द्वारा आदिवासी जनजाति और दलित समुदाय की उन पौने दो हज़ार महिलाओं की सरेआम पीट पीटकर की गई बर्बर हत्याओं पर कांग्रेस और उसके गठबन्धन सहयोगियों की फौज तथा मीडिया का एक वर्ग विशेष 10 वर्षों तक मरघटी मौन क्यों साधे रहा था.? क्या यह मौन इसलिए साधा गया था, क्योंकि देश में कांग्रेस की सरकार थी.? या फिर उसकी दृष्टि में 1762 आदिवासी जनजाति व दलित समुदाय की महिलाओं की हत्याओं से ज्यादा दुःखद और महत्वपूर्ण हैं 26 मुसलमानों की हत्याएं.?
30 तथाकथित गौतस्करों की हत्याओं पर आजकल संसद, सड़क और मीडिया मंचों पर ताण्डव कर रही कांग्रेस और उसके गठबन्धन सहयोगियों की फौज तब चुप क्यों थी जब 10 वर्षों तक लगातार प्रतिवर्ष औसतन 176 महिलाओं को चुड़ैल घोषित कर के अंधविश्वासी भीड़ द्वारा बर्बरतापूर्वक मौत के घाट उतारा जा रहा था। तब 10 वर्षों तक यह गठबन्धन क्यों खामोश था.?
कुछ ऐसे गम्भीर सवाल हैं जो आजकल मॉब लिंचिंग के नाम पर संसद और मीडिया मंचों पर अपने साथियों सहयोगियों के साथ जबरदस्त हंगामा कर रही, हाहाकार मचा रही कांग्रेस के पाखण्ड की धज्जियां उड़ा देते हैं। लेकिन बात यहीं खत्म नहीं होती।
वर्ष 2001 से 2004 तक के 4 वर्षों के दौरान अंधविश्वासी भीड़ द्वारा प्रतिवर्ष मौत के घाट उतारी जानेवाली महिलाओं की औसत संख्या 132 थी। जो कांग्रेसी यूपीए के शासनकाल के दौरान औसतन प्रतिवर्ष होती रहीं ऐसी हत्याओं से 44 (लगभग 34%) अधिक है। यूपीए शासनकाल में महिलाओं की मॉब लिंचिंग की घटनाओं में एक तिहाई से अधिक की वृद्धि क्यों हुई.?

Tuesday, August 21, 2018

सिद्धू और कांग्रेस सरासर सफेद झूठ बोल रहे हैं। देश की आंखों में धूल झोंक रहे हैं।

सिद्धू की पाकिस्तान यात्रा को एक दोस्त के निमंत्रण पर दूसरे दोस्त सिद्धू द्वारा की गयी यात्रा बता रही है कांग्रेस। यही राग सिद्धू भी अलाप रहा है।
अब जानिये जरा कि इमरान खान का कितना बड़ा दोस्त है सिद्धू।
जिस मुश्ताक मुहम्मद की अंगुली पकड़कर उसकी कप्तानी में इमरान खान अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट की ऊंचाइयों तक पहुंचा। उसके बाद जिन आसिफ इकबाल और ज़हीर अब्बास की कप्तानी में इमरान खान बरसों तक खेला। उन तीनों को अपने शपथ ग्रहण में इमरान खान ने ना बुलाया, ना ही वो तीनों उसके शपथग्रहण में गए। अपने 21 बरस लम्बे क्रिकेट कैरियर में इमरान खान जिन खिलाड़ियों के साथ खेला उनमें से केवल 4 पाकिस्तानी खिलाड़ी, मियांदाद, वसीम अकरम, वकार यूनुस, आकिब जावेद ही उसके शपथग्रहण में गए थे।
पूरी दुनिया से कोई क्रिकेट खिलाड़ी उसके शपथग्रहण में शामिल नहीं हुआ, सिवाय सिद्धू के। क्या इमरान खान का इतना बड़ा और ख़ास दोस्त है सिद्धू.?
इसका जवाब मेरे यह कुछ सवाल दे देते हैं।
कांग्रेस और विशेषकर सिद्धू को यह बताना चाहिए कि उसके इतने घनिष्ठ दोस्त इमरान खान ने एक के बजाय तीन शादियां कीं हैं, पर उसने अपने पक्के दोस्त सिद्धू को उन तीनों शादियों में कभी क्यों नहीं बुलाया था.?
इमरान खान अपने जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि जिस कैंसर अस्पताल को बताता है उसके उदघाटन के शानदार जश्न में उसने अपने घनिष्ठ दोस्त सिद्धू को क्यों नहीं बुलाया था.? जबकि उस जश्न में उसने दुनिया भर के कई खिलाड़ियों को बुलाया था।
सिद्धू यह भी बताए कि उसने अपनी खुद की शादी में अपने घनिष्ठ मित्र इमरान खान को क्यों नहीं बुलाया था.? उसकी शादी में इमरान खान क्यों नहीं आया था.?
यही नहीं सिद्धू के जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि उसका मंत्री बनना था। सिद्धू ने अपनी उस उपलब्धि के उस जश्न में शामिल होने का निमंत्रण इमरान खान को क्यों नहीं दिया था.? इमरान खान उसके शपथग्रहण में क्यों नहीं आया था.?
,दरअसल अपने क्रिकेट जीवन के शिखर के दौरान इमरान खान अत्यन्त अहंकारी और बदमिजाज इन्सान के रूप में कुख्यात हुआ करता था। उस दौर के अनेक पाकिस्तानी/अंतरराष्ट्रीय क्रिकेटरों ने अपनी किताबों में बहुत विस्तार से इसपर लिखा भी है। यही कारण है कि उस दौर के उसके साथी रहे केवल 4 पाकिस्तानी क्रिकेटर उसके जश्न में शामिल हुए तथा शेष दुनिया का कोई क्रिकेटर शामिल नहीं हुआ।
ध्यान रहे जिस दौर में इमरान खेलता था उस दौर में सिद्धू औसत दर्जे का वह क्रिकेटर था जो भारतीय टीम में कभी स्थायी जगह नहीं पाया और लगातार अंदर बाहर होता रहता था।
अतः वेंगसरकर और श्रीकांत सरीखे जिन भारतीय कप्तानों के साथ क्रिकेट के मैदान में दर्जनों बार इमरान खान ने हाथ मिलाए, उनके साथ बरसों तक वह खेला भी लेकिन इन खिलाड़ियों के बजाय औसत दर्जे के खिलाड़ी सिद्धू के साथ उसकी ऐसी कौन सी गहरी दोस्ती कब हो गयी थी.?
दअरसल भारत में घुसपैठ करने के लिए पाकिस्तानी फौज जिसतरह आतंकियों को कवर फायर देती है, ठीक उसी तरह सिद्धू को कवर फायर देने के लिए ही इमरान खान ने कपिलदेव और गावस्कर को भी निमंत्रण भेज दिया था। हालांकि वह भलीभांति जानता था कि यह दोनों ही नहीं आएंगे क्योंकि उसने जब कैंसर अस्पताल के लिए चंदा मांगा था तब कपिलदेव ने उसको मुंहतोड़ जवाब दिया था और गावस्कर ने भी अंगूठा दिखाया था।
इसलिए यह जान समझ लीजिए कि इमरान और सिद्धू की कोई दोस्ती कभी नहीं रही। दोनों एकदूसरे के दोस्त कभी नहीं रहे। दोनों की दोस्ती के फ़र्ज़ी दावे की नकाब में सिद्धू वहां कांग्रेस का दूत बनकर ही गया था।
सिद्धू की पाकिस्तान यात्रा और वहां उसकी करतूतों के पक्ष और समर्थन में खुलकर खड़े होकर कांग्रेस ने स्थिति को शीशे की तरह साफ कर दिया है।