Saturday, October 15, 2016

क्या एक और पाकिस्तान के निर्माण की नींव का पहला पत्थर है यह मानसिकता.?

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धर्मांध मानसिकता के साथ कट्टर विचार के साम्प्रदायिक सम्भोग के कारण होने वाला धार्मिक वैमनस्य का वीर्यपात भविष्य के गर्भ में  एक और पाकिस्तान के भ्रूण का निर्माण किस प्रकार करता है इसका शर्मनाक साक्ष्य और सन्देश दे रही है यह खबर.
सेक्युलर चिकित्सा पद्धति के राजनीतिक  पुरोधा इस "एक और पाकिस्तान" के भ्रूण की रक्षा में जिस प्रकार प्राणपण से प्रयास कर रहे हैं वह उनके द्वारा 100 और 70 वर्ष पूर्व,  "पहले पाकिस्तान" की भ्रूण रक्षा की उनकी भूमिका की खूनी यादें 
ताज़ा कर रही हैं .
मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने देश के सर्वोच्च न्यायलय के आदेश और संविधान को मानने से स्पष्ट इनकार का सन्देश बहुत साफ़ शब्दों में दे दिया है. मुस्लिम वोटों के "लालच कुंड" में डूब उतरा रहे कुछ राजनीतिक दलों ने मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की इस संविधान विरोधी अराजक मुद्रा के समर्थन में अपने सियासी सेक्युलरिज़्म का नगाड़ा भी जोरशोर से पीटना प्रारम्भ कर दिया है. यह स्थिति देश के भयावह राजनीतिक भविष्य की प्रारंभिक रूपरेखा के निर्माण का अत्यन्त खतरनाक सन्देश दे रही है.

आज 2016 के यह हालात आज से ठीक सौ वर्ष पहले के दिसम्बर 1916 के उन हालातों की याद दिला रहे हैं जब कांग्रेस ने मुस्लिम लीग के साथ मिलकर अपनी घोर साम्प्रदायिक मांगों वाला लखनऊ पैक्ट नाम का साझा प्रस्ताव तैयार करा था. लखनऊ पैक्ट की पहचान पाकिस्तान के निर्माण की आधारशिला के पहले पत्थर के रूप में भी की जाती है. उसकी यह पहचान आधारहीन नहीं है. भारतीय राजनीतिक इतिहास में यह ऐसा पहला राजनीतिक प्रस्ताव था जिसमें साम्प्रदायिक आधार पर राजनीति और सत्ता में मुस्लिम हिस्सेदारी की मांग खुलकर की गयी थी. उस समय मोहम्मद अली जिन्ना ने अखिल भारतीय मुस्लिम लीग के अध्यक्ष की हैसियत से संवैधानिक सुधारों की संयुक्त "कांग्रेस-मुस्लिम लीग" की जो योजना पेश की थी उसके अंतर्गत "कांग्रेस-मुस्लिम लीग" समझौते से मुसलमानों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्रों तथा जिन प्रान्तों में वे अल्पसंख्यक थे, वहाँ पर उन्हें अनुपात से अधिक प्रतिनिधित्व देने की व्यवस्था की मांग की गई। इसी समझौते को 'लखनऊ पैक्ट' कहते हैं.
इस लखनऊ पैक्ट को तैयार करने के लिए मुहम्मद अली जिन्ना की प्रशंसा करते हुए कांग्रेस ने जिन्ना को उस समय हिन्दू-मुस्लिम एकता का राजदूत घोषित कर दिया था. काँग्रेस प्रांतीय परिषद चुनाव में मुसलमानों के लिए अलग निर्वाचक मण्डल तथा पंजाब एवं बंगाल को छोडकर, जहां उन्होनेहिन्दू और सिख अल्पसंख्यकों को कुछ रियायतें दी, सभी प्रान्तों में उन्हें रियायत (जनसंख्या के अनुपात से ऊपर) देने पर भी सहमत हो गई थी.
हालांकि ब्रिटिश शासकों ने "कांग्रेस-मुस्लिम लीग" गठबंधन के इस घोर साम्प्रदायिक प्रस्ताव को मानने से स्पष्ट इनकार कर दिया था.
यहां यह उल्लेख अत्यावश्यक है कि, प्रथम विश्व युद्ध से पहले ब्रिटिश सरकार ने भारत में मुस्लिम लीग को पूरी तरह बहिष्कृत कर हाशिये पर पहुंचा दिया था. उसपर अपने अस्तित्व को बचाये बनाये रखने का गम्भीर संकट मंडरा रहा था. मुस्लिम लीग के साथ ब्रिटिश सरकार की इस तकरार का "भारत की आज़ादी" की लड़ाई से कोई लेनादेना नहीं था. इसके बजाय ब्रिटिश सरकार से मुस्लिम लीग की तकरार का कारण तुर्की के कट्टरपंथी, घोर साम्प्रदायिक खलीफा का मुस्लिम लीग द्वारा खुलकर किया जानेवाला समर्थन था. उस समय पूरी दुनिया में तुर्की के खलीफा की सांप्रदायिक विद्वेष और घृणा फ़ैलाने वाली विषाक्त विचारधारा के खिलाफ पूरा विश्व एकजुट हो रहा था. किन्तु तुर्की के खलीफा को दुनिया के कट्टरपंथी मुस्लिम देश अपना धर्म प्रमुख तथा उसके आदेशों और उपदेशों को सर्वोपरि मानते थे. तुर्की के उसी खलीफा को ही हिंदुस्तान की मुस्लिम लीग भी अपना आदर्श मानती थी. इसीलिए ब्रिटिश सरकार उसको कोई महत्व नहीं देती थी.
इस गंभीर स्थिति में मुस्लिम लीग के साथ समझौता करके कांग्रेस ने उसके लिए संजीवनी की भूमिका का निर्वाह किया था. प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति के तत्काल बाद ब्रिटिश सरकार ने भारत में राजनीतिक प्रशासनिक सुधार के अपने प्रस्ताव के लिए जब सुझाव मांगे थे तो कांग्रेस ने अपना वजन बढ़ाने के लिए घोर साम्प्रदायिक कट्टरपंथी मुस्लिम लीग से हाथ मिलाकर उसको अपना साझीदार बना लिया था. दिसम्बर 1915 को मुम्बई में तथा नवम्बर 1916 को कलकत्ता में कांग्रेस और मुस्लिम लीग के मठाधीशों की महत्वपूर्ण बैठकों में कांग्रेस और मुस्लिम लीग की साझा मांगों की रूपरेखा तैयार की गयी थी.
ब्रिटिश सरकार से अपनी मांगों के साझा प्रस्ताव को अंतिम रूप देने के लिए दोनों पार्टियों, कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग ने लखनऊ में अपना संयुक्त अधिवेशन  (29-31) दिसम्बर 1916 को आयोजित किया था. अधिवेशन में तैयार प्रस्ताव को इतिहास में लखनऊ पैक्ट के नाम से जाना जाता है.

आगे चलकर चौथे दशक में मोहम्मद अली जिन्ना ने मुस्लिम लीग का पुनर्गठन किया और खुद को 'क़ायदे आज़म' (महान नेता) घोषित करवाया.  1940 ई. में जिन्ना ने 1916 के उसी प्रस्ताव को विस्तार देते हुए धार्मिक आधार पर भारत के विभाजन तथा मुसलिम बहुसंख्यक प्रान्तों को मिलाकर पाकिस्तान बनाने की मांग कर दी थी. सात साल बाद 1947 में जिन्ना की उस मांग की पूर्ति भारत के विभाजन और पाकिस्तान के जन्म के साथ हुई थी.  
1916 में कांग्रेस के समर्थन और सहयोग से जहरीली साम्प्रदायिक राजनीति का जो अध्याय जिन्ना ने लिखना प्रारम्भ किया था उसका अंत लाखों रक्तरंजित लाशों के साथ हुआ था. आज ठीक सौ साल बाद जब एक कट्टरपंथी मुस्लिम NGO 1916 वाले जिन्ना की भाषा बोल रहा है और कांग्रेस उसी तरह खुलकर उस NGO का समर्थन कर रही है जिस तरह 1916 में उसने जिन्ना का किया था, तो किसी काले नाग की तरह फन काढ़ कर यह प्रश्न स्वतः खड़ा हो जाता है कि.....
क्या एक और पाकिस्तान के निर्माण की नींव का पहला पत्थर है यह मानसिकता...???


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