Friday, December 23, 2016

लोकतंत्र के दो स्तम्भों को RTI से परहेज क्यों.?

चुनावों में कालेधन का जमकर उपयोग होने की चर्चा के साथ ही साथ उन्हीं चुनावों में पेड न्यूज के कालेधंधे की चर्चा भी जमकर होती है. 
सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्टों के जजों के भ्रष्टाचरण के अनेकों प्रकरण पिछले काफी लम्बे समय से लगातार उजागर हो रहे हैं.
अतः लोकतंत्र के दो स्तम्भों न्यायपालिका और प्रेस को  इसके दायरे में आने से परहेज क्यों..?
8 नवम्बर को हुई 1000 और 500 के पुराने नोटों की नोटबन्दी के बाद से न्यूजचैनलों पर यह बहस जोरशोर से प्रारम्भ हो गयी है कि... कालेधन पर अंकुश के लिए राजनीतिक दलों को सूचना का अधिकार कानून (RTI) के दायरे में लाया जाए तथा उनको मिलनेवाले हर छोटी बड़ी राशि के चन्दे के स्त्रोत की पूरी जानकारी सार्वजानिक करने का प्रावधान हो. निकट अतीत में न्यायालयों में भी इस ऐसे प्रश्नों को वरीयता के साथ पूछा गया है. मैं भी इस मांग से, ऐसे प्रश्नों से पूर्णतया सहमत हूँ किन्तु न्यूजचैनलों पर आजकल जोरशोर से की जा रही इस मांग ने एक गम्भीर प्रश्न को भी जन्म दिया है. देश का मीडिया केवल राजनीतिक दलों को ही RTI के दायरे में लाने के लिए ही लगातार शोर क्यों कर रहा हैं.? न्यायालयों में ऐसे प्रश्नों का एकमात्र केंद्र राजनीतिक दल ही क्यों बन रहे हैं.? क्या राजनीतिक दलों के साथ ही साथ प्रेस (मीडिया) तथा देश के न्यायालयों को भी सूचना का अधिकार कानून के दायरे में लाया जाना जरुरी नहीं है.? लोकतंत्र के चार स्तम्भों में से कार्यपालिका और विधायिका तो सूचना का अधिकार कानून के दायरे में पहले से ही हैं. अतः लोकतंत्र के शेष दो स्तम्भों न्यायपालिका और प्रेस को इसके दायरे में आने से परहेज क्यों...?

क्या देश को यह पता चलना आवश्यक नहीं है कि... प्रतिवर्ष सैकड़ों करोड़ के घाटे में चलनेवाले न्यूजचैनल अपने भांति भांति के संपादकों को 15 से 50 लाख रू प्रतिमाह तथा उगाही एजेंट सरीखे रिपोर्टर पत्रकारों को भी 2 से 3 लाख रू प्रतिमाह तक का वेतन कैसे और कहाँ से देते हैं.? इन न्यूजचैनलों पर चलनेवाले विज्ञापनों में से कितने असली हैं और कितने विज्ञापन कालेधन को सफ़ेद बनाने के अपने गोरखधंधे के लिए फ़र्ज़ी तौर पर फिलर की तरह दिखाए जा रहे हैं...? इसकी जांच क्यों नहीं होनी चाहिए.? ऐसे प्रश्नों का उत्तर न्यूजचैनलों को क्या देश को नहीं देना चाहिए.? विशेषकर तब जब कुछ न्यूजचैनलों के सन्दर्भ में पिछले कुछ वर्षों से देश में यह चर्चा जोरशोर से जारी है कि इनके आय के स्त्रोत के तार संदिग्ध विदेशी संपर्कों और अवैध कालेधन से जुड़े हुए हैं. दिल्ली के इनकमटैक्स कमिश्नर के रूप में एसके श्रीवास्तव द्वारा NDTV के खिलाफ 1.76 लाख करोड़ के 2G घोटाले की रकम में से 2000 करोड़ रू की भागीदारी समेत कुल 5500 करोड़ रू की अवैध रकम (कालाधन) हवाला के जरिये सफ़ेद कर के लेने के अत्यंत गम्भीर आरोप ऐसा ही एक शर्मनाक उदाहरण है. इनकमटैक्स कामिश्नर के उपरोक्त आरोपों को इस बात से भी बल मिला है क्योंकि 2G घोटाले की दलाली की मास्टरमाइंड नीरा राडिया के लिए लॉबीइंग करती NDTV की मैनेजिंग एडिटर की टेलीफोन वार्ताओं को पूरा देश सुन चुका है. अतः न्यूजचैनलों की कार्यशैली और कमाई से सम्बन्धित तथ्यों में RTI लागू करके पारदर्शिता क्यों नहीं लायी जानी चाहिए.? 

इसी तरह 10 से 12 रू की लागत वाला अख़बार रोजाना लाखों की संख्या में केवल 3 से 5 रू तक की कीमत (जिसमे से 1 से 2 रू तो हॉकर और एजेंट ही ले लेता है) के दायरे में बेंचने वाले प्रकाशन समूहों को RTI के दायरे में क्यों नहीं आना चाहिए.? विशेषकर तब जबकि देश और प्रदेश में होनेवाले हर चुनावों के दौरान पेड न्यूज से सम्बन्धित सैकड़ों शिकायतें प्रेस काउंसिल ऑफ़ इंडिया तथा चुनाव आयोग में व जनता के बीच जोरशोर गूंजती और दर्ज होने के क्रम और गति पिछले कई वर्षों से लगातार बढ़ती जा रही है. 
ध्यान रहे कि चुनावों में कालेधन का जमकर उपयोग होने की चर्चा के साथ ही साथ उन्हीं चुनावों में पेड न्यूज के कालेधंधे की चर्चा भी जमकर होती है. हर चुनावों में लोकतंत्र की लाज लूटती पेड न्यूजों के तांडव को देखा सुना जाता है. पत्रकारिता की तुलना साबुन तेल मंजन या कंडोम बेंचने वाली किसी कम्पनी के धंधे से नहीं हो सकती. इसे शुद्ध निजी व्यवसाय की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता. पत्रकारिता को लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ की उपाधि से सम्मानित किया गया है. अतः जनता के प्रति जवाबदेही इसका प्रमुख दायित्व है. 
वैसे भी लोकतंत्र के चार स्तम्भों में से कार्यपालिका और विधायिका तो सूचना का अधिकार कानून के दायरे में पहले से ही हैं. अतः लोकतंत्र के शेष दो स्तम्भों न्यायपालिका और प्रेस को इसके दायरे में आने से परहेज क्यों...?
न्यायपालिका का कार्य और दायित्व लोगों को न्याय प्रदान करना है. यह सीधे जनता से जुड़ा हुआ दायित्व है तथा यह कोई ऐसी प्रक्रिया नहीं है जिसमे देश की सुरक्षा या अन्य किसी संवेदनशील विषय से सम्बन्धित गोपनीयता की कोई भूमिका है. अतः न्यायपालिका को भी RTI के दायरे में लाने से आखिर परहेज क्यों.? विशेषकर तब जबकि देश में सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्टों के जजों के भ्रष्टाचरण के अनेकों प्रकरण पिछले काफी लम्बे समय से लगातार उजागर हो रहे हैं. देश की जनता को यह जानने का हक़ क्यों नहीं है कि जिस देश में करोड़ों लोग अपने मुक़दमे की सुनवाई और फैसले के लिए वर्षों से कतार में खड़े हैं उसी देश में एक हत्यारे आतंकवादी की फांसी रोकने की अपील की सुनवाई के लिए देश की सर्वोच्च अदालत पूरी रात कैसे और क्यों खुली रहती है. देश को यह जानने का अधिकार क्यों नहीं है कि जिस सर्वोच्च न्यायलय में अपने केस की सुनवाई प्रारम्भ होने के लिए आम आदमी को महीनों प्रतीक्षा करनी पड़ती है उसी सर्वोच्च न्यायालय द्वारा किसी कपिल सिब्बल द्वारा मोबाइल फोन से की गयी अपील पर किसी तीस्ता सीतलवाड़ की गिरफ़्तारी पर रोक कैसे लग जाती है.? देश को यह जानने का भी अधिकार क्यों नहीं है कि जिस हाईकोर्ट में अपने मामले की सुनवाई प्रारम्भ होने के लिए देश के आम आदमी को हफ्तों और महीनों तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है वही हाईकोर्ट निचली अदालत द्वारा एक फ़िल्मी सितारे सलमान खान को सुनाई गयी सजा के खिलाफ की गयी अपील को निचली अदालत द्वारा दिए गए आदेश के केवल 3 घण्टे बाद ही कैसे सुन लेता है.?

अतः केवल राजनीतिक दलों को RTI कानून के अन्तर्गत लाने के लिए आजकल मीडिया, विशेषकर न्यूजचैनलों में चल रहे अभियान को तबतक केवल एक पाखण्ड और प्रहसन ही क्यों ना माना जाए जबतक इस अभियान में जनता से सीधे जुड़े हुए देश के शेष दो स्तम्भों देश की मीडिया और न्यायिक व्यवस्था को भी RTI कानून के अंतर्गत लाने की मांग को शामिल नहीं किया जाता.

3 comments:

  1. बिलकुल सही बात है, जब एक गरीब मजदुर इन्सान से आज़ादी के बाद से अब तक का हिसाब मागा जा रहा है तो इनको भी पूरा हिसाब हो

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