Tuesday, January 9, 2018

सोनिया गांधी को क्या कांग्रेस की यह सच्चाई नहीं मालूम.?

भारत छोड़ो आन्दोलन की हीरक जयंती के अवसर पर आयोजित लोकसभा के विशेष सत्र में बोलते समय कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनिया गांधी ने कटाक्ष किया था कि  'आज जब हम उन शहीदों को नमन कर रहे हैं, जो स्वाधीनता संग्राम में सबसे अगली कतार में रहे, हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि उस दौर में ऐसे संगठन और व्यक्ति भी थे, जिन्होंने भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध किया था। इन तत्वों का हमारे देश को आजादी दिलाने में कोई योगदान नहीं रहा।' 

सोनिया गांधी ने आरएसएस पर निशाना साधा और कहा था कि ऐसे संगठनों ने आजादी में कोई योगदान नहीं दिया बल्कि ऐसे संगठन आजादी के आंदोलन के खिलाफ थे। 

अपने सम्बोधन में सोनिया गांधी ने अपने सम्बोधन में यह कहा था कि ' आजादी की लड़ाई के दौरान कांग्रेस के कई कार्यकर्ताओं की जेल में मौत हो गई थी और पूर्व प्रधानमंत्री नेहरु ने जेल में लंबा समय बिताया था।

सोनिया गांधी के उस पूरे सम्बोधन का सार यह ही था कि आजादी की लड़ाई केवल कांग्रेस के नेताओं ने लड़ी थी। शेष किसी का उसमें कोई योगदान नहीं था। संसद में ऐसा दावा करने वाली सोनिया गांधी ने सम्भवतः कांग्रेस का इतिहास नहीं पढ़ा। अन्यथा ऐसा अहंकारी दावा करने से पूर्व सोनिया गांधी को हज़ार बार सोचना पड़ता क्योंकि

जिस आज़ादी की लड़ाई लड़ने और देश को आज़ाद कराने का श्रेय केवल कांग्रेस को देने की कोशिश सोनिया गांधी ने की उसके विषय में उस दौर के दिग्गज कांग्रेसी नेता और 1920 में कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे लाला लाजपत राय ने अपनी पुस्तक "युवा भारत" मे कांग्रेस और उसके तत्कालीन नेताओं के विषय में जो कुछ लिखा है वह सोनिया गांधी के उपरोक्त दावे की धज्जियां उड़ा देता है।

दिग्गज कांग्रेसी नेता और 1920 में कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे लाला लाजपत राय ने अपनी पुस्तक "युवा भारत" मे कांग्रेस और उसके तत्कालीन नेताओं के विषय में जो कुछ लिखा है वह सोनिया गांधी के उपरोक्त दावे की धज्जियां उड़ा देता है।
1916 में (कांग्रेस की स्थापना के 31 वर्ष पश्चात) लिखी गयी अपनी पुस्तक युवा भारत के पृष्ठ 98 में लाला लाजपतराय जी ने "कांग्रेस की स्थापना साम्राज्य हितों के लिए थी।" उपशीर्षक से लिखा है कि यह तो स्पष्ट है कि उस समय कांग्रेस की स्थापना आनेवाले खतरों से ब्रिटिश साम्राज्य को बचाने के लिए ही की गयी थी, न कि भारत को स्वतंत्रता दिलाने के लिए। उस समय ब्रिटिश राज्य की सुरक्षा का सवाल ही मुख्य था और भारत के हित गौण थे। इससे भी कोई इनकार नहीं करेगा कि कांग्रेस अपने उस समय के आदर्श के अनुकूल ही चलती रही। यह कथन नितान्त न्याययुक्त तथा तर्कसंगत है कि कांग्रेस के संस्थापक यह जानते थे कि भारत में ब्रिटिश शासन का चलते रहना अत्यन्त आवश्यक है, और इसीलिए उनकी चेष्टा थी कि यथा-शक्ति किसी भी आगन्तुक विपत्ति से ब्रिटिश शासन की न केवल रक्षा की जाए, अपितु उसे और मजबूत बनाया जाए। उनकी दृष्टि में देशवासियों की राजनैतिक मांगों की पूर्ति तथा भारत की राजनैतिक प्रगति गौण थीं।

इसी पुस्तक में आगे के पन्नों में उस दौर के कांग्रेस नेताओं के विषय में जानकारी देते हुए "कांग्रेस के नेता" उपशीर्षक से पृष्ठ 164 में लाला लाजपतराय जी ने लिखा है कि...
"कांग्रेस के अनेक नेता सच्चे देशभक्त हैं. किन्तु उन्हें ऐशो-आराम तथा शांत जीवन से इतना प्रेम है कि वे अशान्त परिस्थितियों उपद्रवों तथा भयानक विपत्तियों का सामना करने में अपने को असमर्थ पाते हैं। यही कारण है कि उग्रवादियों के तरीकों के प्रति उनमें विरक्ति का भाव है। तथा वे आम लोगों तक अपना प्रचार कार्य भी नहीं कर पाते। वे बहुत धीमे चलते हैं। यह भी सत्य है कि इनमें कई लोग कायर हैं। कुछ ऐसे हैं जो स्वार्थ पूर्ति में लगे रहते हैं। उन्हें जजों के पदों पर नियुक्त होने की ख्वाहिश रहती है। वे कौंसिलों के सदस्य बनना चाहते हैं, "सर" या "राय बहादुर" का ख़िताब पाना चाहते हैं, किन्तु हम ऐसे लोगों को राष्ट्रवादी नहीं मानते। यह भी सत्य है कि कोई भी राजनीतिक पार्टी इस श्रेणी के लोगों से अछूती नहीं रहती। कुछ कांग्रेसी आचरण में उदारपंथी हैं. किन्तु विचारों से गरमदली हैं। उनमें साहस की इतनी कमी है कि वे स्वयं को उग्रदल वालों की पंक्ति में नहीं बिठा पाते, उसी प्रकार जैसे स्वयं को कांग्रेसी कहनेवाले ऐसे लोग भी हैं जो पक्के राजभक्त हैं तथा सदा अपने हितों की वृद्धि के लिए चिन्तित रहते हैं।
लाला लाजपतराय ने "कांग्रेस की असफलता के कारण" उपशीर्षक से अपनी पुस्तक के पृष्ठ 111 से 113 के मध्य कांग्रेस की असफलता का बिन्दुवार विस्तार से वर्णन कुछ इस प्रकार किया है।
(1) यह आन्दोलन न तो जनता की प्रेरणा से आरम्भ किया गया और न इसकी योजना उसने बनाई। सच तो यह है कि इसके पीछे भारतवासियों की आन्तरिक प्रेरणा थी ही नहीं। भारत के लोगों के किसी भाग ने इस आन्दोलन के साथ खुद को पूरे तौर पर नहीं जोड़ा जिससे उसे यह भरोसा हो जाता है कि इस आन्दोलन के सुचारु संचालन के साथ उसका अस्तित्व ही जुड़ा हुआ है। यह आन्दोलन एक अंग्रेज़ वायसराय की सलाह से एक अंग्रेज़ द्वारा शुरू किया गया।
इसका नेतृत्व करनेवाले वो लोग थे जो या तो सरकारी नौकरियों में थे अथवा इन सेवाओं के साथ किसी भी रूप में सम्बद्ध थे, अथवा उन्हीं के लिए ऐसे अवसर सरकार द्वारा बनाये गए थे। इनमें से अनेक लोग सरकारी नौकरियों में प्रवेश पाना चाहते थे, अथवा सरकार से अपने महत्व या अपनी सार्वजनिक भावना को मनवाना चाहते थे। इनमें इतनी देशभक्ति तो थी जिससे वे इस आन्दोलन के लिए अपना समय और शक्ति का स्वल्पांश निकाल लेते, किन्तु तभी तक जबतक उनके भविष्य को नुकसान न हो। अथवा इसके लिए उन्हें भारी बलिदान न करना पड़े। हम उनके उद्देश्यों तथा देशभक्ति पर कोई सवाल खड़ा नहीं कर रहे, किन्तु इतना कहा जा सकता है कि अपने लक्ष्य के लिए सर्वस्व न्योछावर करने की क्षमता उनमें नहीं थी।
(2) इस आन्दोलन में लोकप्रियता अर्जित करने की क्षमता नहीं थी। इसके नेताओं का जनसामान्य से कोई सम्बन्ध नहीं था। शायद वे आम जनता के निकट आना भी नहीं चाहते थे। उनका प्रचार कार्यक्रम कुछ अंग्रेजी पढ़े लिखे लोगों तक ही सीमित था, इसके लिए वे अंग्रेजी जबान का ही प्रयोग करते थे तथा उनका प्रयोजन मात्र अधिकारियों तक अपनी बात पहुंचाने का था, न कि आम लोगों तक। नेताओं को जनता के बीच जाने में शर्मिंदगी महसूस होती थी। उन्होंने उसके निकट जाने का यत्न भी नहीं किया और नौजवानों को ऐसा करने से निरुत्साहित किया। कुछ ने तो ऐसे प्रयत्नों का खुला विरोध भी किया.
(3) यह नेता लोगों में जोश पैदा करने में असफल रहे. ऐसा शायद इसलिए हुआ क्योंकि उनमें त्यागभाव की कमी थी।
अथवा उनका यह त्याग नितान्त तुच्छ था। इस आन्दोलन से इन नेताओं का सामान्य जीवन, उनकी आमदनी, उनकी सम्पन्नता तथा ऐशो-आराम किंचित मात्र भी प्रभावित नहीं हुए।
इसमें  दो अपवाद अवश्य हैं- दादाभाई नौरोजी तथा गोखले। मि ह्यूम तथा वेडरबर्न के त्याग ने उन्हें लज्जित तो किया, किन्तु वे स्वयं ऐसा नहीं कर सके। सच तो यही है कि इससे लोगों में इन नेताओं के प्रति नाराज़गी बढ़ी और अविश्वास भी बढ़ा। जब ऐसे नेताओं को सरकार में ऊँचे ओहदे दिए गए तो अविश्वास की खाई और चौड़ी हो गयी।

(4) जो आन्दोलन कुछ सहूलियतों की ही मांग करे और आज़ादी के लिए आवाज़ न उठाये वह कदापि प्रभावशाली नहीं बन सकता। इसे तो केवल अवसरवादी आन्दोलन कहा जाएगा। राष्ट्र-निर्माण तथा लोगों के चरित्र निर्माण में बाधक ऐसा आन्दोलन शरारतपूर्ण ही कहा जाएगा। यह तो त्याग किये बिना ही ख्याति प्राप्त करना है। इसके द्वारा पाखण्डियों और विश्वासघातियों को अनुकूल अवसर मिलते हैं। इसमें कुछ लोगों को देशभक्ति की ओट में व्यापर करने का मौका मिल जाता है। यों तो कोई भी राजनैतिक आन्दोलन अपने को ऐसे दोषों से नहीं बचा पाता, किन्तु इससे सबसे बड़ा नुकसान यह होता है कि देश की जनता का सामान्य ढंग से बौद्धिक विकास नहीं हो पाता। कारण कि देशवासियों में मात्र अच्छी आशाएँ जगा दी जाती हैं जो इन नेताओं द्वारा अपनाये गए अथवा प्रस्तावित किये गए तरीकों से कभी पूरी नहीं की जा सकती।
10/08/2017

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